श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी129. विष्णुप्रिया जी को संन्यासी स्वामी के दर्शन
विष्णुप्रिया जी की इच्छा अपने प्राणेश के पाद-पद्यों में प्रणत होकर कुछ प्रार्थना करने की थी, किन्तु इतनी अपार भीड़ में कुल-वधू बाहर कै से जाय, यही सोचकर वे दुविधा में पड़ गयीं। फिर उन्हों ने सोचा, जब वे यहाँ तक आये हैं, संन्यासी होकर भी उन्होंने इतनी अनुकम्पा की है, तब मुझे बाहर जाने में अब क्या लाज? लोक-लाज सब इन्हीं के चरणों की प्राप्ति के ही निमित्त तो हैं, जब ये चरण साक्षात सम्मुख ही उपस्थित हैं, तब इन के स्पर्श-सुख से अप ने को वंचित क्यों रखूं? यह सोचकर विष्णुप्रिया जी जैसे बैठी थीं वैसे ही प्रभु के पादपद्यों का स्पर्श कर ने चलीं। उन्होंने वेणी बांधना बन्द कर दिया था, शरीर के सभी अंगों के आभूषण उतार दिये थे, आहार भी बहुत ही कम कर दिया था। नित्य के कम आहार से उनका शरीर क्षीण हो गया था। वे निरन्तर प्रभु का ही ध्यान किया करती थीं। प्रभु-दर्शनों की लालसा से क्षीण काय, मलिनवसना विष्णुप्रिया जी अपने सम्पूर्ण शरीर को संकुचित बनाती हुई जल्दी से प्रभु की ओर चलीं। प्रभु दृष्टि उठाकर किसी की ओर नहीं देखते थे, वे पृथ्वी की ही ओर खड़े-खड़े ताक रहे थे। उसी समय उन्होंने देखा, मलिन वस्त्र पहने एक स्त्री उन के चरणों में आकर गिर पड़ी। स्त्री-स्पर्श से भयभीत होकर प्रभु दो कदम पीछे हट गये। विष्णुप्रिया जी सुबकियां भर-भरकर धीरे-धीरे रुदन कर ने लगीं। प्रभु ने भर्राई हुई आवाज में पूछा- 'तुम कौन हो?' हाय रे वैराग्य! तेरी ऐसी कठोरता को बार-बार धिक्कार है, जो अप ने शरीर का आधा अंग कही जाती है, जिस के लिये स्वामी को छोड़कर दूसरा कोई है ही नहीं, उसी का निर्दयी स्वामी, उस के जीवन का सर्वस्व, उस का इष्टदेव उस से पूछता है-' तुम कौन हो?' आ काश! तू गिर क्यों नहीं पड़ता? पृथ्वी! तू फट क्यों नहीं जाती? विष्णुप्रिया जी चुप नहीं, सोचा, कोई दूसरा ही मेरा परिचय करा दे, किन्तु दूसरे किस की हिम्मत थी? सभी की वाणी बंद हो गयी थी। इतनी भारी भीड़ उस समय बिलकुल शान्त हो गयी थी, चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। विष्णुप्रिया जी ने जब देखा, कोई भी कुछ नहीं कहता, तब वे स्वयं ही धीरे-धीरे करूण-स्वर में कह ने लगीं- 'मैं आप के चरणों की अत्यन्त ही क्षुद्र दासी हूँ!' |