श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी97. सार्वभौम भक्त बन गये
सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा- ‘भाई ! यह अपने घर की बात थोड़े ही है। भगवान व्यासदेव जी के अभिप्राय को ही भाष्यकार ने स्पष्ट किया हैं, उन्होंने अपनी तरफ से कुछ थोड़े ही कहा है?’ कुछ मुसकराते प्रभु ने कहा- ‘आपके सामने अधिक बोलना ही धृष्टता होगी, किन्तु प्रसंगवश कहना ही पड़ता है। भगवान व्यासदेव के अभिप्राय को ठीक-ठीक इन्होंने ही व्यक्त किया है, इसे हम कैसे कह सकते हैं। इन्हीं सूत्रों का भाष्य भगवान रामानुज ने विशिष्टा द्वैतपरक किया है और भगवान मध्वाचार्य ने शारीरक भाष्य के ठीक प्रतिकुल इन्ही सूत्रों से द्वैतमत का प्रतिपादन किया है। ये सभी-के-सभी पूज्य, मान्य और आदरणीय महापुरुष हैं। इनमें से किसकी बात को झूठ समझें। इसलिये यही कहना पड़ता है कि इन तीनों ने ही अपने-अपने दृष्टिकोण से ठीक ही व्याख्या की है। इन सभी ने किसी एक विषय का प्रतिपादन किया है। इनमें से यही व्याख्या सर्वमान्य हो सकती है, इसे मैं नहीं मानता। ये सभी व्याख्याएँ एकदेशीय हैं। आप ही सोचिये, जिन्होंने छ: शास्त्र और अठारह पुराण तथा पंचम वेद महाभारत को बनाकर भी शान्ति प्राप्त नहीं की और पूर्ण शान्ति लाभ करने के ही निमित्त जिन्होंने सभी वेद-शास्त्रों का सार संग्रह करके श्रीमद्भागवत की रचना की और उसे रचकर ही अनन्त शान्ति प्राप्त की। वे ही भगवान व्यासदेव श्रीमद्भागवत में क्या कहते हैं- अहो भाग्यमहो भाग्यं नन्दगोपव्रजौकसाम्। अर्थात ‘व्रज में रहने वाले नन्द आदि ग्वालबालों के भाग्य की सराहना कौन कर सकता है, जिनके मित्र परम आनन्दस्वरूप साक्षात सनातन पूर्ण ब्रह्म हैं।’ इस प्रकार के उद्गारों को व्यक्त करने वाले व्यासदेव इस बात का आग्रह करें कि ‘नहीं, ब्रह्म का निर्गुण-निराकार रूप ही यर्थाथ है, शेष सभी कल्पित और मिथ्या हैं!’ तो यह बात कुछ समझ में नहीं आती। जो श्रीकृष्ण को सनातन पूर्ण ब्रह्म बताकर गाँव के गँवार गोप-ग्वालों के भाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे हैं, वे इस प्रकार का हठ करेंगे, यह कुछ विचारणीय विषय है। कुछ निरुत्तर-से होकर सार्वभौम ने क्षणभर सोचकर कहा- ‘तब तो भगवान शंकर के सारे सिद्धान्त का खण्डन हो जाता है। उन्होंने तो अपने सभी ग्रन्थों में निर्विशेष ब्रह्म का ही भाँति-भाँति से प्रतिपादन किया है और इस नाम-रूपात्मक दृश्य जगत को मिथ्या बताकर अपने-आपको ही ब्रह्म मानने के लिये कहा है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10/14/32