श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी97. सार्वभौम भक्त बन गये
सत्यपि भेदापगमे नाथ! तदाहं न मामकीनस्त्वम्। हे नाथ! चाहे तुममें और जगत में भेद न हो, तो भी मेरे स्वामी! मैं तुम्हारा हूँ, तुम मेरे नहीं हो। यद्यपि समुद्र तथा तरंग में भेद न हो तो लोग ‘समुद्र की तरंग’ ऐसा ही कहते है, ‘तरंग का समुद्र’ ऐसा कोई नहीं कहता।’ यह उन महापुरुष का वाक्य हैं, जो जगत को त्रिकाल में भी कुछ नहीं मानते। जिनकी दृष्टि में मैं मेरा तथा जन्म-मृत्यु सब कोरी कल्पना ही हैं, किन्तु ये बातें उनके मस्तिष्क की थीं। यह उनके सरस और निष्कपट शुद्ध हृदय के उदगार हैं। तभी तो भगवान व्यासदेव ने कहा है- आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे। प्रभु के मुख से इस बात को सुनकर और अपनी झेंप मिटाने के निमित्त सार्वभौम ने कहा-‘हाँ हाँ, इस श्लोक का आप क्या अर्थ करते हैं, हमें भी तो सुनाइये?’ प्रभु ने अत्यन्त ही दीनता के साथ कहा- ‘भला, मैं आपके सामने श्लोक की व्याख्या करने योग्य हूँ? यह काम तो आपका ही है। आप मुझे ही इसकी व्याख्या करके सुनाइये, जहाँ मेरी समझ में न आवेगी वहाँ पूछ लूंगा।’ अब तक तो सार्वभौम कुछ उत्तर देने में असमर्थ थे, इसलिये वे एकटक- भाव से प्रभु के मुख की ओर देखते हुए उनकी बातें सुन रहे थे। अब उन्हें अपने पाण्डित्य प्रदर्शन करने का कुछ अवसर प्राप्त हुआ। इसलिये बड़े हर्ष के साथ नाना भाँति की शंकाओं को उठाते हुए और शास्त्रीय प्रमाण देते हुए उन्होंने इस एक ही छोटे-से श्लोक की नौ प्रकार से व्याख्या की और पृथक-पृथक नौ भाँति के अर्थ करके बताये। अपनी व्याख्या को समाप्त करते हुए अपने पाण्डित्य की प्रशंसा सुनने के उत्सुकता से वे प्रभु के मुख की ओर निहारने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भ. शंकराचार्य की ष. प.
- ↑ जो शास्त्रीय ज्ञान से परे पहुँच गये हैं, जिनकी अहंता-ममतारूपी हृदयग्रन्थि खुल गयी है और जो मौन रहकर सदा आत्मा में ही रमण करते रहते हैं ऐसे ज्ञानी पुरुष भी भगवान उरुक्रम के विषय में अहैतु की भक्ति करते हैं, क्योंकि उन श्रीहरि के गुण ही ऐसे अद्भुत हैं कि समझदार पुरुष उनमें भक्ति किये बिना रह ही नहीं सकते। श्रीमद्भा. 1/7/10