श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी97. सार्वभौम भक्त बन गये
प्रभु ने कुछ लज्जा के कारण सिकुड़ते हुए धीरे से कहा- ‘भगवान व्यासदेव का सरल सूत्रों का शब्दार्थ तो बड़ी सुगमता से मेरी समझ में आ जाता है, किन्तु भाष्य सुनते ही सारा मामला गड़बड़ हो जाता है। मुझे ऐसा प्रतीत होने लगता है कि भगवान भाष्यकारों ने अपने एकदेशीय अर्थ के लिये शब्दों की खूब खींचतान की है और जो अर्थ सूत्र में लक्षित हो नहीं होता, उसकी जबरदस्ती ऊपर से आवृत्ति की है।’ महाप्रभु की इस बात को सुनते ही भट्टाचार्य तथा पाठ सुनने वाले सभी विद्यार्थियों के कान खड़े हो गये। वे आश्चर्य की दृष्टि से प्रभु के मुख की ओर निहारने लगे। भट्टाचार्य ने कुछ आश्चर्य करते हुए कहा- ‘आप यह कैसी बात कह रहे हैं। श्रुति का मुख्य प्रतिपाद्य विषय निर्गुण-निराकार अद्वितीय ब्रह्म की सिद्धि करना ही है। शारीरकभाष्य में उसी नाम-रुप से रहित अद्वितीय ब्रह्म का प्रतिपादन किया गया है।’ प्रभु ने धीरे से कहा- ‘मुझे निराकार-निर्गुण रुप का वर्णन स्वीकार है। मैं यह कब कहता हूँ कि श्रुतियों में निराकार ब्रह्म का वर्णन है ही नहीं; किन्तु भाष्यकार ने सगुण-साकार रुप को जो एकदम गौण और उपेक्षणीय ठहरा दिया है इसे मैं नहीं मानता। यह तो एकपक्षीय सिद्धान्त हो गया। भगवान के सगुण-निर्गुण, साकार निराकार दोनों ही रुप मुख्य और आदरणीय हैं। श्रुति जहाँ ‘एकमेवाद्वितीयम’[1] ‘नेह नानास्ति किंचन’[2] ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’[3] आदि कह-कहकर सर्वव्यापी निर्गुण निराकार रुप का वर्णन करती है वहां- अपाणिपादो जवनो ग्रहीता ‘बहु स्याम्'[5] ‘स ईक्षत’[6] इत्यादि श्रुतियों में प्रत्यक्ष रीति से भगवान के सगुण-साकार रूप का वर्णन है तथा उनकी दिव्यलीला और कर्मों का भी वर्णन है। उन्हें गौण कहकर छोड़ देना केवल बुद्धि-वैलक्षण्य का ही द्योतक है। मेरी समझ में तो भगवान भाष्यकार ने केवल बुद्धि को तीक्ष्ण करने के अभिप्राय से ही ऐसी व्याख्या की होगी। जो केवल मस्तिष्क-प्रधान है, उनके लिये विचार की पराकाष्ठा की गयी होगी। सचमुच भाष्यकार ने अपनी प्रत्युत्पन्न मति का बड़ा ही अद्भुत परिचय दिया है। जो विचार को ही प्रधान मानते हैं वे इससे अधिक और विचार कर ही नहीं सकते, किन्तु हृदय-प्रधान सरस भावुक भक्तों को इस खींचतानी की व्याख्या से सन्तोष नहीं होने का।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वह ब्रह्म एक अद्वितीय ही है।
- ↑ संसार में जो यह नानात्व दृष्टिगोचन हो रहा है वह कुछ नहीं है।
- ↑ यह जो सब दीख रहा है सब-का-सब ब्रह्म ही है।
- ↑ उसके प्राकृतिक हाथ-पैर नहीं हैं, किन्तु वह ग्रहण करता और जोरों से चलता है। चक्षु न रहने पर भी देखता है। कानों के बिना भी शब्दों को सुनता है। वह सम्पूर्ण जाननेयोग्य विषयों को भलीभाँति जानता है, किन्तु उसे कोई नहीं जानता, उसे ही आदि महान पुरुष कहते हैं।
- ↑ (उसने सोचा-) मैं एक से बहुत हो जाऊँ।
- ↑ उसने ईक्षण किया।