श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी81. गौरहरि का संन्यास के लिये आग्रह
यह सब सोचकर भारती जी ने कहा- ‘पण्डित! मालूम पड़ता है, तुम अपनी माता तथा पत्नी से बिना ही कहे रात्रि में उठकर भाग आये हो। जब तक तुम उनसे आज्ञा लेकर न आओगे तब तक मैं तुम्हें संन्यास-दीक्षा नहीं दे सकता। प्रभु ने कहा- बहुत दिन हुए तभी मैंने इस सम्बन्ध की सभी बातें बताकर उन्हें राजी कर लिया था और उनकी सम्मति लेकर ही मैं संन्यास ले रहा हूँ।’ भारती जी ने कहा- ‘इस तरह से नहीं, बहुत दिन की बातें तो भूल में पड़ गयीं। आज तो तुम उनकी बिना ही सम्मति के आये हो। उनकी सम्मति के बिना मैं तुम्हें कभी भी संन्यास की दीक्षा नहीं दुंगा!’ इतनी बात के सुनते ही प्रभु एक दम उठकर खडे़ हो गये और यह कहते हुए कि- ‘अच्छा, लीजिये मैं अभी उनकी सम्मति लेकर आता हूँ।’ वे नवद्वीप की ओर द्रुतगति के साथ दौड़ने लगे। जब वे आश्रम से थोड़ी दूर निकल गये तब भारती जी ने सोचा- ‘इनकी इच्छा के विरुद्ध करने की सामर्थ्य है। यदि इनकी ऐसी ही इच्छा है कि यह निर्दय काम मेरे ही द्वारा हो, यदि ये अपने लोकविख्यात गुरुपद का सौभाग्य मुझे ही प्रदान करना चाहते हैं, तो मैं लाख बहाने बनाऊँ तो भी मुझे यह कार्य करना ही होगा। |