श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी81. गौरहरि का संन्यास के लिये आग्रह
वृद्धा स्त्रियां इनको इस प्रकार आँसू बहाते देखकर इनके समीप जाकर कहतीं- ‘बेटा! तुझे क्या सूझी है, तेरी मां की क्या दशा होगी। तेरी दशा देखकर हमारा हृदय फटा जाता है। तू अपने घर को लौट जा। संन्यासी होने में क्या रखा है। जाकर माता-पिता की सेवा कर।’ युवती स्त्रियां रोते-रोते कहतीं- ‘हाय! इनकी स्त्री के ऊपर तो आज वज्र ही टुट पड़ा होगा। जिसका त्रैलोक्य-सुन्दर पति युवावस्था में उसे छोड़कर संन्यासी बनने के लिये चला आया हो- उस दु:खिनी नारी को दु:ख को कौन समझ सकता है। पति ही कुलवती स्त्रियों के लिये एकमात्र आधार और आश्रय है। वह निराधार और निराश्रया युवती क्या सोच रही होगी। क्या कह-कहकर रुदन कर रही होगी।’ कोई-कोई साहस करके कहतीं- ‘अजी! तुम अपने घर को चले जाओ, हम तुम्हारे पैर छुती हैं। तुम्हारी घरवाली की दशा का अनुमान करके हमारी छाती फटी जाती है। तुम अभी चले जाओ।’ प्रभु उन स्त्रियों की बातें सुनते मुख में तृण दबाकर तथा हाथ जोड़कर अत्यन्त ही दीनभाव से कहते- ‘माताओ! तुम मुझे ऐसा आशीर्वाद दो कि मुझे कृष्ण प्रेम की प्राप्ति हो जाय। यह मनुष्य-जीवन क्षणभंगुर है। उसमें श्रीकृष्ण-भक्ति बड़ी दुर्लभ है। उससे भी दुर्लभ महात्मा और सत्पुरुषों की संगति है। महापुरुषों की संगति से ही जीवन सफल हो सकता है। मैं संन्यास ग्रहण करके वृन्दावन में जाकर अपने प्यारे श्रीकृष्ण को पा सकूं, ऐसा आशीर्वाद दो।’ स्त्रियाँ इनकी ऐसी दृढ़तापूर्वक बातों को सुनकर रोने लगतीं और इन्हें अपने निश्चय से तनिक भी विचलित हुआ न देखकर मन-ही-मन पश्चात्ताप करती हुई अपने-अपने घरों को लौट जातीं। इस प्रकार प्रभु को बैठे-ही-बैठे शाम हो गयी। किसी ने भी अन्न का दाना मुख में नहीं दिया था। सभी उसी तरह चुपचाप बैठे थे। |