श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारीप्राक्कथन एवं अन्तिम निवेदन
‘नाम-वियोगी ना जिये, जिये तो बाउर होय।।’ हाल तो नाम-वियोगी प्रेमी जीते ही नहीं हैं, यदि दैवसंयोग से जी भी पड़े तो वे लोक-ब्राह्य और संसारी लोकों की दृष्टि में बिलकुल पागल बन जाते हैं। उन पागलों से प्रेम-पथ की बातें जानने की आशा रखना दुराशामात्र ही है। यह तो हम-जैसे प्रेम के नाम से अपने स्वार्थ को सिद्ध करने वाले स्वभाव के अधीन प्राणियों के द्वारा ही वे ऐसा काम कराते हैं। इसमें कुछ-न-कुछ लाभ तो प्रेम-पथ के पथिकों को होगा ही। जिस प्रकार कोई राजा को देखना चाहता है, किंतु राजा हम लोगों की तरह वैसे ही सब जगह थोड़े ही घूमता रहता है? उसके पास जाने के लिये सात पहरेवालों से अनुमति लेनी पड़ती है, तब कहीं जाकर किसी भाग्यशाली को राजा के दर्शन होते हैं, नहीं तो ऐसे-वैसों को तो पहले पहरेवाला पुरुष ही फटकार देता है। अब जिस आदमी ने पहले कभी राजा को देखा तो है नहीं और राजा को देखने की उसकी प्रबल इच्छा है, किंतु असली राजा तक उसकी पहुँच नहीं, तब वह चार आने का टिकट लेकर नाटयशाला में चला जाता है और वहाँ राजा का अभिनय करने वाले बनावटी राजा को देखने पर उसकी इच्छा की कुछ-कुछ पूर्ति हो जाती है। यद्यपि नाटयशाला में उसे असली राजा के दर्शन नहीं हुए, किंतु तो भी उस बनावटी राजा को देखकर वह राजा के वेष-भूषा, वस्त्र-आभूषण, मुकुट-कुण्डल और रोब-दाब तथा प्रभाव के विषय में कुछ कल्पना कर सकता है। |