श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारीप्राक्कथन एवं अन्तिम निवेदन
उस बनावटी राजा के देखने से वह अनुमान लगा सकता है कि असली राजा शायद ऐसा होगा। इसी प्रकार इस पुस्तक के पढ़ने से पाठकों को प्रेम की प्राप्ति हो सके, यह तो सम्भव नहीं, किंतु इसके द्वारा पाठक प्रेमियों की दशा का कुछ-कुछ अनुमान अवश्य लगा सकते हैं। उन्हें इस पुस्तक के पढ़ने से पता चल जायगा कि प्रेम में कैसी मस्ती है, कैसी तन्मयता है, कैसी विकलता है। प्रेम-रस में छके हुए प्रेमी की कैसी अद्भुत दशा हो जाती है, उसके कैसे लोक-ब्राह्य आचरण हो जाते हैं, वह किस प्रकार संसारी लोगों की कुछ भी परवा न करके पागलों की तरह नृत्य करने लगता है। इन सभी बातों का दिग्दर्शन पाठकों को इस पुस्तक के द्वारा हो सकेगा। अध्यापकी का अन्त होने के बाद प्रभु का सम्पूर्ण जीवन प्रेममय ही था। अहा! उस मूर्ति के स्मरणमात्र से हृदय में कितना भारी आनन्द प्राप्त होता है? पाठक प्रेम में नृत्य करते हुए गौरांग का एक मनोहर-सा चित्र अपने हृदय-पटल पर अंकित तो करें। सुवर्ण के समान देदीप्यमान शरीर पर पीताम्बर पड़ा हुआ है। जमीन तक लटकती हुई चौड़ी किनारीदार एक बहुत ही सुन्दर धोती बँधी हुई है। दोनों आँखों की पुतलियाँ ऊपर चढ़ी हुई हैं। खुली हुई आँखों की कोरों में से अश्रु निकलकर उन सुन्दर गोल-कपोलों को भिगोते हुए वक्षःस्थल को तर कर रहे हैं। दोनों हाथों को ऊपर उठाये गौरांग ‘हरि बोल, हरि बोल’ की सुमधुर ध्वनि से दिशा-विदिशाओं को गुंजयमान कर रहे हैं। उनकी घुँघराली काली-काली लटें वायु के लगने से फहरा रही हैं। वे प्रेम में तन्मय होने के कारण कुछ पीछे की ओर झुक-से गये हैं। चारों ओर आनन्द में उन्मत्त होकर भक्तवृन्द नाना भाँति के वाद्य बजा-बजाकर प्रभु के आनन्द को और भी अत्यधिक बढ़ा रहे हैं। बीच-बीच में प्रभु किसी-किसी भाग्यवान भक्त का गाढ़ालिंगन करते हैं, कभी किसी का हाथ पकड़कर उसके साथ नृत्य करने लगते हैं। भावुक भक्त प्रभु के चरणों के नीचे की धूलि उठा-उठाकर अपने सम्पूर्ण शरीर पर मल रहे हैं। इस स्मृति में कितना आनन्द है, कैसी मिठास है, कितनी प्रणयोपासना भरी हुई है? हाय! हम न हुए उस समय? धन्य हैं वे महाभाग जिनके साथ महाप्रभु गौरांगदेव ने आनन्द विहार और संकीर्तन तथा नृत्य किया। सर्वप्रथम नाम-संकीर्तन का सौभाग्य-सुख उन भाग्यशाली विद्यार्थियों को प्राप्त हुआ, जो निमाई पण्डित की पाठशाला में पढ़ते थे। जब निमाई गौरहरि हो गये और पाठशाला की इतिश्री हो गयी तब मानो निमाई पण्डित प्रेम पण्डित बन गये। अब वे लौकिक पाठ न पढ़ाकर प्रेम-पाठ पढ़ाने वाले अध्यापक बन गये। सर्वप्रथम उनके कृपापात्र होने का सौभाग्य परम-भाग्यशाली स्वनामधन्य श्रीरत्नगर्भाचार्य को प्राप्त हुआ। |