श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारीप्राक्कथन एवं अन्तिम निवेदन
भक्ति के परमप्रधान त्याग और वैराग्य ये दो ही साधन हैं। प्रेम भक्ति का फल है। इसीलिये महाप्रभु ने प्रेम को मोक्ष से भी बढ़कर पंचम पुरुषार्थ बताया है। उस प्रेम की उपलब्धि अहैतु की भक्ति के द्वारा ही हो सकती है और भक्ति त्याग-वैराग्य के बिना हो ही नहीं सकती। अतः महाप्रभु गौरांग के जीवन में त्याग, वैराग्य और भक्ति- इन तीन भावों की तीन पृथक-पृथक धाराएँ बहकर अन्त में प्रेमरूपी महासागर में मिलकर वे एक हो गयी हैं। इन पंक्तियों के लेखक के द्वारा इन्हीं तीनों भावों को प्रधानता देते हुए यह जीवनी लिखी गयी है। महाप्रभु के जीवन-सम्बन्धी घटनाओं का आधार तो बंगाल की ‘चैतन्य-भागवत,’ ‘चैतन्य मंगल’ और ‘चैतन्य-चरितामृत’ आदि प्राचीन पुस्तकों से लिया गया है और उन घटनाओं को श्रीमद्भागवत के भावरूपी साँचों में ढालकर भागवतमय बनाया गया है। इस प्रकार महाप्रभु गौरांगदेव को उपलक्ष्य बनाकर जिसे असली ‘चैतन्य-जीवन’ कहते हैं, उसी भागवत चैतन्य-जीवन का इसमें वर्णन है। प्रेम-जीवन ही चैतन्य-जीवन है। श्रीचैतन्यदेव के समान प्रेम के भावों को प्रकट करने वाले प्रेमियों का अवतार कभी-कभी ही इस धराधाम पर होता है। वे अपने प्रेममय आचरणों से प्राणिमात्र को सुख पहुँचाते हैं। इसीलिये असली प्रेमी देश, काल और जाति के बन्धनों से सदा पृथक ही रहते हैं। उनका जीवन संकीर्ण न होकर सम्पूर्ण संसार को सुख-शान्ति का पाठ पढ़ाने वाला सार्वभौम होता है। वे किसी एक विशेष जाति के भीतर ही क्यों न पैदा हुए हों, किन्तु उनके ऊपर सभी जातिवालों का समान अधिकार होता है। सभी देशवासी उन्हें अपना ही मानकर पूजते हैं। |