श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी73. भक्तों की लीलाएँ
अत्यन्त ही दीनभाव से श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘प्रभो! जहाँ आप संकीर्तन कर रहे हों, वहाँ कोई दुर्घटना हो ही कैसे सकती है? सम्पूर्ण दुर्घटनाओं के निवारणकर्ता तो आप ही हैं। आप के सम्मुख भला दुर्घटना आ ही कैसे सकती है? आप तो मंगलस्वरूप है। आप की उपस्थिति में तो परम मंगल-ही-मंगल होने चाहिये।’ प्रभु ने दृढ़ता के साथ कहा- ‘नहीं, ठीक बताइये। मेरा मन व्याकुल हो रहा है। हृदय आप-से-आप ही निकल पड़ना चाहता है। अवश्य की कोई दुर्घटना घटित हो गयी है।’ प्रभु के इस प्रकार दृढ़ता के साथ पूछने पर श्रीवास चुप हो गये, उन्होंने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब धीरे से एक भक्त ने कहा- ‘प्रभो श्रीवास का इकलौता पुत्र परलोकवासी हो गया है।’ सम्भ्रम के साथ श्रीवास के मुख की ओर देखते हुए प्रभु ने चौंककर कहा- ‘हैं क्या कहा? श्रीवास के पुत्र का परलोकवास? कब हुआ? पण्डितजी! आप बतलाते क्यों नहीं? असली बात क्या है?’ इतना सुनते ही प्रभु की दोनो आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी। गद्गद-कण्ठ से प्रभु ने कहा- ‘श्रीवास! आपने आज श्रीकृष्ण को खरीद लिया। ओहो! इतनी भारी दृढ़ता! इकलौते मरे पुत्र को भीतर छोड़कर आप उसी प्रेम से कीर्तन कर रहे हैं। धन्य है आपकी भक्ति को और बलिहारी है आपके कृष्ण-प्रेम को। सचमुच आप-जैसे भक्तों के दर्शनों से ही कोटि जन्मों के पापों का क्षय हो जाता है, यह कहकर प्रभु फूट-फूटकर रोने लगे। इतने में ही कुछ भक्त भीतर जाकर श्रीवास पण्डित के मृत पुत्र के शरीर को आंगन में उठा लाये। प्रभु उसके सिरहाने बैठ गये और अपने कोमल कर से उसका स्पर्श करते हुए जीवित मनुष्य से जिस प्रकार पूछते हैं, उसी प्रकार पूछने लगे- ‘क्यों जीव! तुम कहाँ हो? इस शरीर को परित्याग करके क्यों चले गये?’ उस समय प्रभु के अन्तरंग भक्तों को मानो स्पष्ट सुनायी देने लगा कि वह मृत शरीर जीवित पुरुष की भाँति उत्तर दे रहा है। उसने कहा- ‘प्रभो! हम तो कर्माधीन हैं! हमारा इस शरीर में इतने ही दिन का संस्कार था। अब हम बहुत उत्तम स्थान में हैं और खूब प्रसन्न हैं।’ |