श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी73. भक्तों की लीलाएँ
ओहो! कितना ऊँचा आदर्श है? इकलौते पुत्र के मर जाने पर भी जिनके शरीर को संताप-पीड़ा नहीं हो सकती, क्या वे संसारी मनुष्य कहे जा सकते हैं? क्या उनकी तुलना मायाबद्ध जीव के साथ की जा सकती है? सचमुच में वे श्यामसुन्दर के सदा के सुहृद और सखा हैं। ऐसे भगवान के प्राणप्यारे भक्तों को संताप कहाँ? जिनका मन-मधुप उस मुरलीमनोहर के मुखरूपी कमल की मकरन्द मधुरिमा का पान कर चुका है, उसे फिर संसारी संतापरूपी वनवीथियों में व्यर्थ घूमने से क्या लाभ? वह तो उस अपने प्यारे की प्रेमवाटिका में विचरण करता हुआ सदा आनन्द का रसास्वादन करने में ही मस्त बना रहेगा। श्रीमद्भागवत में हरिनामक योगेश्वर ठीक ही कहा है- भगवत उरुविक्रमाङ्घ्रिशाखा- अर्थात भगवत-सेवा से परम सुख मिलने के कारण, उन भगवान के अरुण कोमल चरणारविन्दों के मणियों के समान, चमकीले नखों की चन्द्रमा के समान शीतल किरणों की कान्ति से एक बार जिसके हृदय के सम्पुर्ण संताप नष्ट हो चुके हों, ऐसे भक्त के हृदय में संसारी सुखों के वियोगजन्य दु:ख-संताप की स्थिति हो ही कैसे सकती है? जिस प्रकार रात्रि में चन्द्रमा के उदय होने पर सूर्य का ताप किंचिन्मात्र भी नहीं रहता, उसी प्रकार भगवत-कृपा के होने पर संसारी तापों का अत्यन्तभाव हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11/2/54