श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी72. क़ाज़ी की शरणागति
प्रभु के आज के नृत्य से कठोर-से-कठोर हृदय में भी प्रेम का संचार होने लगा। कीर्तन के महाविरोधियों के मुखों में से भी हठात निकल पड़ने लगा- ‘धन्य है, प्रेम हो तो ऐसा हो!’ कोई कहता- ‘इतनी तन्मयता तो मनुष्य-शरीर में सम्भव नहीं।’ दूसरा बोल उठता- ‘निमाई तो साक्षात नारायण है।’ कोई कहता- ‘हमने तो ऐसा सुख अपने जीवन में आज तक कभी पाया नहीं।’ दूसरा जल्दी से बोल उठता- ‘तुमने क्या, किसी ने भी ऐसा सुख आज तक कभी नहीं पाया। यह सुख तो देवताओं को भी दुर्लभ है। वे भी इसके लिये सदा लालायित बने रहते हैं।’ प्रभु संकीर्तन करते हुए गंगा जी के घाट की ओर जा रहे थे। रास्ते में मनुष्यों की अपार भीड़ थी। उस भीड़ में से चींटी का भी निकल जाना सम्भव नहीं था। भगवद्भक्त सद्गृहस्थ अपने-अपने दरवाजों पर आरती लिये हुए खडे़ थे। कोई प्रभु के ऊपर पुष्पों की वर्षा करता, कोई भक्तों को माला पहनाता, कोई बहुमूल्य इत्र-फुलेल की शीशी-की-शीशी प्रभु के ऊपर उडे़ल देता। कोई इत्रदान में से इत्र छिड़क-छिड़ककर भक्तों को सराबोर कर देता। अटा, अटारी और छज्जे तथा द्वारों पर खड़ी हुई स्त्रियाँ प्रभु के ऊपर वहीं से पुष्पों की वृष्टि करतीं। कुमारी कन्याएं अपने आंचलों में भर-भरकर धान के लावा भक्तों के ऊपर बिखेरती। कोई सुन्दर सुगन्धित चन्दन ही छिड़क देती, कोई अक्षत, दूब तथा पुष्पों को ही फेंककर भक्तों का स्वागत करती। इस प्रकार सम्पूर्ण पथ पुष्पमय हो गया। लावा, अक्षत, पुष्प और फलों से रास्ता पट-सा गया। |