श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी72. क़ाज़ी की शरणागति
घुँघरुओं की रुनझुन-रुनझुन ध्वनि के साथ ढोल-करताल और झाँझ-मजीरों की आवाजें मिलकर विचित्र प्रकार की ही स्वर-लहरी की सृष्टि कर रही थीं। एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय से बिलकुल पृथक ही पदों का गायन करता था। वाद्य बजाने वाले भक्त नृत्य करते-करते बाद्य बजा रहे थे। ढोल बजाने वाले बजाते-बजाते दोहरे हो जाते और पृथ्वी पर लेट-लेटकर ढोल बजाने लगते। करताल बजाने वाले चारों ओर हाथ फेंक-फेंककर जोरों से करताल बजाते। झाँझ और मजीरा की मीठी-मीठी ध्वनि सभी के हृदयों में खलबली-सी उत्पन्न कर रही थी। नृत्य करने वाले के चारों ओर से घेरकर भक्त खडे़ हो जाते और वह स्वच्छन्द रीति से अनेक प्रकार के कीर्तन के भावों को दर्शाता हुआ नृत्य करने लगता। उसके सम्प्रदाय के सभी भक्त उसके पैरों के साथ पैर उठाते और उसकी नूपुर-ध्वनि के सहित अपनी नूपुर-ध्वनि को मिला देते। बीच-बीच में सम्पूर्ण लोग एक साथ जोरों से बोल उठते ‘हरि बोल,’ ‘हरि बोल’,’गौरहरि बोल।’ अपार भीड़ में से उठी हुई यह आकाश-मण्डल को कपाँ देने वाली ध्वनि बहुत देर तक अन्तरिक्ष में गूजंती रहती। भक्त फिर उसी प्रकार संकीर्तन में मग्न हो जाते। सबसे पीछे नित्यानन्द और गदाधर के साथ प्रभु नृत्य कर रहे थे। महाप्रभु का आज का नृत्य देखने ही योग्य था। मानो आकाश-मण्डल में देवगण अपने-अपने विमानों में बैठे हुए प्रभु का नृत्य देख रहे हों। प्रभु उस समय भावावेश में आकर नृत्य कर रहे थे। घुंटुनों तक लटकी हुई उनकी मनोहर माला पृथ्वी को स्पर्श करने लगती। कमर को लचाकर, हाथों को उठाकर, ऊर्ध्व दृष्टि किये हुए प्रभु नृत्य कर रहे थे। उनके दोनों कमल-नयनों से प्रेमाश्रु बह-बहकर कपोलों के ऊपर से लुढ़क रहे थे। |