श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी72. क़ाज़ी की शरणगति
सभी लोग इस मुनादी को सुनते और आनन्द से उछलने लगते। सामूहिक कार्यों में एक प्रकार का स्वाभाविक जोश आ जाता है। उस जोश में सभी प्रकार के लोग एक अज्ञातशक्ति के कारण खिंचे-से चले आते हैं, जिनसे कभी किसी शुभकाम की आशा नहीं की जाती वे भी जोश में आकर अपनी शक्ति से बहुत अधिक कार्य कर जाते हैं, इसीलिये तो कलिकाल में सभी कार्यों के लिये संघशक्ति को ही प्रधानता दी गयी है। नवद्वीप में ऐसा नगर-कीर्तन पहले कभी हुआ ही नहीं था। वहाँ के नर-नारियों के लिये यह एक नूतन ही वस्तु थी। लोग बहुत दिनों से निमाई के नृत्य और कीर्तन की बातें तो सुनते थे, किंतु उन्होंने आज तक कभी निमाई का नृत्य तथा कीर्तन देखा नहीं था। श्रीवास पण्डित के घर के भीतर संकीर्तन होता था और उसमें खास-खास भक्तों के अतिरिक्त और कोई जा ही नहीं सकता था, इसीलिये नगरवासियों की कीर्तनानंद देखने की इच्छा मन-ही-मन में दब-सी जाती। आज नगर कीर्तन की बात सुनकर सभी की दबी हुई इच्छाएं उभड़ पड़ी। लोग अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार संकीर्तन के स्वागत के निमित्त भाँति-भाँति की तैयारियां करने लगे। कहावत है ‘खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलने लगता है’ जब भगवद्भक्त अपने-अपने घरों को बंदनवार, कदलीस्तम्भ और ध्वजा-पताकाओं से सजाने लगे, तब उनके समीप रहने वाले शाक्त अथवा विभिन्न पन्थवाले लोग भी शोभा के लिये अपने-अपने दरवाजों के सामने झंडियां लगाने लगे, जिससे हमारे घर के कारण नगर की सजावट में बाधा न पड़े। किसी जोशीले नये काम के लिये सभी लोगों के हृदयों में स्वाभाविक ही सहानुभुति उत्पन्न हो जाती है। उस कार्य की घूम-घाम से तैयारियां होते देखकर विपक्षी भी उसमें सहयोग देने लगते हैं। उस समय उनके विरोधी भाव दूर हो जाते हैं, कारण कि उग्र विचारों का प्रभाव तो सभी प्रकारके लोगों के ऊपर पड़ता है। इसलिये जो लोग अपनी नीच प्रकृति के कारण संकीर्तन तथा श्रीगौरांग से अत्यंत ही द्वेष मानते थे, उन अकारण जलने वाले खल पुरुषों के घरों को छोड़कर सभी प्रकार के लोगों ने अपने-अपने घरों को भलीभाँति सजाया। नगर की सुंदर सड़कों पर छिड़काव किया गया। स्थान-स्थानपर धूप, गुग्गुल आदि सुगन्धित वस्तुएं जलायी गयीं। सड़क के किनारे के दुमंजले-तिमंजले मकान लाल, पीली, हरि, नीली आदि विविध प्रकार की रंगीन साड़ियों से सजाये गये थे। कहीं कागज की पताकाएँ फहरा रही हैं तो कहीं रंगीन कपड़ों की झंडियाँ शोभा दे रही हैं। भक्तों ने अपने-अपने द्वारों पर मंगलसूचक कोरे घड़े जल से भर-भरकर रख दिये हैं। द्वारों पर गहरों के सहित केले के वृक्ष बड़े ही सुदंर तथा सुहावने ने दिखायी देते थे। लोगों का उत्साह इतना अधिक बढ़ गया था कि वे बार-बार यही सोचते थे कि हम संकीर्तन के स्वागत के निमित्त क्या-क्या कर डालें। संकीर्तन-मण्डल किधर होकर निकलेगा और कहाँ जाकर उसका अंत होगा, इसके लिये कोई पथ तो निश्चित हुआ ही नहीं था। सभी अपनी-अपनी भावना के अनुसार यही समझते थे कि हमारे द्वार की ओर होकर संकीर्तन-मण्डल जरूर आवेगा। सभी का अनुमान था, हमें संकीर्तनकारी भक्तों के स्वागत-सत्कार करने का सौभाग्य अवश्य प्राप्त हो सकेगा। इसलिये वे महाप्रभु के सभी साथियों के स्वागतार्थ भाँति-भाँति की सामग्रियाँ सजा-सजाकर रखने लगे। इस प्रकार सम्पूर्ण नवद्वीप में चारों ओर आनन्द–ही-आनन्द छा गया। इतनी सजावट-तैयारियाँ किसी महोत्सव पर अथवा किसी महाराज के आने पर भी नगर में नहीं होती थीं। चारों ओर धूम-धाम मची हुई थी। भक्तों के हृदय मारे प्रेम के बांसों उछल रहे थे। तैयारियां करते-करते ही बात-की-बात में संध्या हो गयी। |