श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी68. श्रीकृष्ण–लीलाभिनय
‘जो आज्ञा’ कहकर ब्रह्मचारी नारद जी के पीछे-पीछे चलने लगा। घर के भीतर महाप्रभु भुवन मोहिनी लक्ष्मी देवी का वेष धारण कर रहे थे। उन्होंने अपने सुन्दर कमल के समान कोमल युगल चरणों में महावर लगाया। उन अरुण रंग के तलुओं में महावर लालिमा फीकी-फीकी-सी प्रतीत होने लगी। पैरों की उंगलियों में आपने छल्ली और छल्ला पहने, खड़ला, छडे़ और झाँझनों के नीचे सुन्दर घुंघरू बांधे। कमर में करधनी बांधी। एक बहुत ही बढ़िया लहँगा पहनी। हाथों की उंगलियों में छोटी-छोटी छल्ली और अंगुठे में बड़ी-सी आरसी पहनी। गले में मोहन माला पचमनिया, हार, हमेल तथा अन्य बहुत-सी जड़ाऊ और कीमती मालाएँ धारण कीं। कानों में कर्णफूल और बाजुओं में सोने की पहुँची पहनी। आचार्य वासुदेव ने बड़ी ही उत्तमता से प्रभु के लम्बे-लम्बे घुंघराले बालों में सीधी मांग निकाली और पीछे से बालों का जूड़ा बांध दिया। बालों के जूडे़ में मालती, चम्पा और चमेली आदि के बड़ी ही सजावट के साथ फूल गूंथ दिये। एक सुन्दर-सी माला जूडे़ में खोंस दी। माँग में बहुत ही बारीकी से सिन्दूर भर दिया। माथे पर बहुत छोटी-सी रोली की एक गोल बिन्दी रख दी। सुगन्धित पान प्रभु के श्रीमुख में दे दिया। एक बहुत ही पतली कामदार ओढ़नी प्रभु को उढा़ दी गयी। श्रृंगार करते-करते ही प्रभु को रुक्मिणी का आवेश हो आया। वे श्रीकृष्ण के विरह में रुक्मिणी भाव से अधीर हो उठे। रूक्मिणी कि पिता की इच्छा थी कि वे अपनी प्यारी पुत्री का विवाह श्रीकृष्णचन्द्र जी के साथ करें, किंतु उनके बड़े पुत्र रुक्मी ने रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल के साथ करने का निश्चय किया था। इससे रुक्मिणी अधीर हो उठी। वह मन-ही-मन श्रीकृष्णचन्द्र जी को अपना पति बना चुकी थी। उसने मन से अपना सर्वस्व भगवान वासुदेव के चरणों में समर्पित कर दिया था। वह सोचने लगी- ‘हाय! वह नराधम शिशुपाल कल बारात सजाकर मेरे पिताकी राजधानी में आ जायगा। क्या मैं अपने प्राणप्यारे पतिदेव को नहीं पा सकूँगी? मैंने तो अपना सर्वस्व उन्हीं के श्रीचरणों में समर्पण कर दिया है। वे दीनवत्सल हैं, अशरणशरण हैं, घट-घटकी जानने वाले हैं। क्या उनसे मेरा भाव छिपा होगा? वे अवश्य ही जानते होंगे। फिर भी उन्हें स्मरण दिलाने को एक विनय की पाती तो पठा ही दूँ। फिर आना-न-आना उनके अधीन रहा? या तो इस प्राणहीन शरीर को शिशुपाल ले जायगा या उसे ख़ाली हाथों ही लौटना पड़ेगा। प्राण रहते तो मैं उस दुष्ट के साथ कभी न जाऊँगी। इस शरीर पर तो उन भगवान वासुदेव का ही अधिकार है। जीवित शरीर का वे ही उपभोग कर सकते है।’ यह सोचकर वह अपने प्राणनाथ के लिये प्रेम-पाती लिखने को बैठी- श्रुत्वा गुणान्भुवनसुंदर श्रृण्वतां ते |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हे अच्युत! तुम्हारे त्रिभुवन-सुंदर स्वरूप की ख्याति मेरे कर्ण कुहरों द्वारा हृदय में पहुँच गयी है, उसने पहुँचते ही मेरे हृदय के सभी प्रकार के तापों को शांत कर दिया है; क्योंकि तुम्हारे जगन्मोहन रूप में और आपके अचिन्त्य गुणों में प्रभाव ही ऐसा है कि वह देखने वालों तथा सुनने वालों के सभी मनोरथों को पूर्ण कर देते है। हे प्रणतपाल! उस ख्याति के ही सुनने से मेरा निर्लज्ज मन तुम्हारे में आसक्त हो गया है। श्रीमद्भाभा. 10/52/37