श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी54. द्विविध-भाव
भगवत-भाव में इन सभी बातों को भुलाकर स्वयं ईश्वरीय आचरण करने लगते। भावावेश के अनन्तर यदि इनसे कोई कुछ पूछता तो बड़ी ही दीनता के साथ उत्तर देते- ‘भैया! हमें कुछ पता नहीं कि हम अचेतनावस्था में न जाने क्या-क्या बक गये। आप लोग इन बातों का कुछ बुरा न मानें। हमारे अपराधों को क्षमा ही करते रहें, ऐसा आशीर्वाद दें, जिससे अचेतनावस्था में भी हमारे मुख से कोई ऐसी बात न निकलने पावे जिसके कारण हम आपके तथा श्रीकृष्ण के सम्मुख अपराधी बनें।’ संकीर्तन में भी ये दो भावों से नृत्य करते। कभी तो भक्त-भाव से बड़ी ही सरलता के साथ नृत्य करते। उस समय का इनका नृत्य बड़ा ही मधुर होता। भक्तभाव में ये संकीर्तन करते-करते भक्तों की चरण-धूलि सिर पर चढ़ाते और उन्हें बार-बार प्रणाम करते। बीच-बीच में पछाड़ें खा-खाकर गिर पड़ते। कभी-कभी तो इतने जोरों के साथ गिरते कि सभी भक्त इनकी दशा देखकर घबड़ा जाते थे। शचीमाता तो कभी इन्हें इस प्रकार पछाड़ खाकर गिरते देख परम अधीर हो जातीं और रोते-रोते भगवान से प्रार्थना करतीं कि ‘हे अशरण-शरण! मेरे निमाई को इतना दुःख मत दो।’ इसीलिये सभी भक्त संकीर्तन के समय इनकी बड़ी देख-रेख रखते और इन्हें चारों ओर से पकड़े रहते कि कहीं मूर्च्छित होकर गिर न पड़ें। कभी-कभी ये भावावेश में आकर भी संकीर्तन करने लगते। तब इनका नृत्य बड़ा ही अद्भुत और अलौकिक होता था, उस समय इन्हें स्पर्श करने की भक्तों को हिम्मत नहीं होती थी, ये नृत्य के समय में जोरों से हुंकार करने लगते। इनकी हुंकार से दिशाएँ गूँजने लगतीं और पदाघात से पृथ्वी हिलने-सी लगती। उस समय सभी कीर्तन करने वाले भक्त विस्मित होकर एक प्रकार के आकर्षण में खिंचे हुए-से मन्त्र-मुग्ध की भाँति सभी क्रियाओं को करते रहते। उन्हें बाह्यज्ञान बिलकुल रहता नहीं था। उस नृत्य से सभी को बड़ा ही आनन्द प्राप्त होता था। इस प्रकार कभी-कभी तो नृत्य-संकीर्तन करते-करते पूरी रात्रि बीत जाती और खूब दिन भी निकल आता तो भी संकीर्तन समाप्त नहीं होता था। एक-एक करके बहुत-से भावुक भक्त नवद्वीप में आ-आकर वास करने लगे और श्रीवास के घर संकीर्तन में आकर सम्मिलित होने लगे। धीरे-धीरे भक्तों का एक अच्छा खासा परिकर बन गया। इनमें अद्वैताचार्य, नित्यानन्द प्रभु और हरिदास- ये तीन प्रधान भक्त समझे जाते थे। वैसे तो सभी प्रधान थे, भक्तों में प्रधान-अप्रधान भी क्या? किंतु ये तीनों सर्वस्वत्यागी, परम विरक्त और महाप्रभु के बहुत ही अन्तरंग भक्त थे। श्रीवास को छोड़कर इन्हीं तीनों पर प्रभु की अत्यन्त कृपा थी। इनके ही द्वारा वे अपना सब काम कराना चाहते थे। इनमें से श्रीअद्वैताचार्य और अवधूत नित्यानन्द जी का सामान्य परिचय तो पाठकों को प्राप्त हो ही चुका है। अब भक्ताग्रगण्य श्रीहरिदास का संक्षिप्त परिचय तो पाठकों को अगले अध्यायों में मिलेगा। इन महाभागवत वैष्णवशिरोमणि भक्त ने नाम-जप का जितना माहात्म्य प्रकट किया है, उतना भगवन्नाम का माहात्म्य किसी ने प्रकट नहीं किया। इन्हें भगवन्नाम-माहात्म्य का सजीव अवतार ही समझना चाहिये। |