श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी54. द्विविध-भाव
इस प्रकार भक्तों को अपनी-अपनी भावना के अनुसार नाना रूपों के दर्शन होने लगे और इन्हें भी विभिन्न देवी-देवताओं तथा परम भक्तों के भाव आने लगे। जब वह भाव शान्त हो जाता, तब ये उस भाव में कही हुई सभी बातों को एकदम भूल जाते और एकदम दीन-हीन विनम्र भक्त की भाँति आचरण करने लगते। तब इनका दीन-भाव पत्थर-से-पत्थर हृदय को भी पिघलाने वाला होता। उस समय ये अपने को अत्यन्त ही दीन, अधम और तुच्छ बताकर जोरों के साथ रुदन करते। भक्तों का आलिंगन करके फूट-फूटकर रोने लगते और रोते-रोते कहते- ‘श्रीकृष्ण कहाँ चले गये? भैयाओ! मुझे श्रीकृष्ण से मिलाकर मेरे प्राणों को शीतल कर दो। मेरी विरह-वेदना को श्रीकृष्ण का पता बताकर शान्ति प्रदान करो। मेरा मोहन मुझे बिलखता छोड़कर कहाँ चला गया?’ इसी प्रकार प्रेम में विह्वल होकर अद्वैताचार्य आदि वृद्ध भक्तों के पैरों को पकड़ लेते और उनके पैरों में अपना माथा रगड़ने लगते। सबको बार-बार प्रणाम करते। यदि उस समय इनकी कोई पूजा करने का प्रयत्न करता अथवा इन्हें भगवान कह देता तो ये दुःखी होकर गंगा जी में कूदने के लिये दौड़ते। इसीलिये इनकी साधारण दशा में न तो इनकी कोई पूजा ही करता और न इन्हें भगवान ही कहता। वैसे भक्तों के मन में सदा एक ही भाव रहता। जब ये साधारण भाव में रहते, तब एक अमानी भक्त के समान श्रद्धा-भक्ति के सहित गंगाजी को साष्टांग प्रणाम करते, गंगाजल का आचमन करते, ठाकुर जी का विधिवत पूजन करते तथा तुलसी जी को जल चढ़ाते और उनकी भक्तिभाव से प्रदक्षिणा करते। |