श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी53. निमाई और निताई की प्रेम-लीला
दोनों भाइयों को भोजन कराते हुए माता ऐसी प्रतीत होने लगी मानो श्री कौसल्या जी अपने श्रीराम और लक्ष्मण दोनों प्रिय पुत्रों को भोजन करा रही हों अथवा यशोदा मैया श्रीकृष्ण-बलराम को साथ ही बिठाकर छाछ खिला रही हों। माता का अन्तःकरण उस समय प्रसन्नता के कारण अत्यन्त ही आनन्दित हो रहा था। उनका अगाध मातृ-प्रेम उमड़ा ही पड़ता था। दोनों भाई भोजन करते-करते भाँति-भाँति की विनोदपूर्ण बातें कहते जाते थे। भोजन करके प्रभु चुपचाप बैठ गये, नित्यानन्द जी भोजन करते ही रहे। प्रभु की थाली में बहुत-सा भात बचा हुआ देखकर नित्यानन्दजी बोले- 'यह क्यों छोड़ दिया है, इसे भी खाना होगा।' प्रभु ने असमर्थता प्रकट करते हुए कहा- 'बस, अब नहीं। अब तो बहुत पेट भर गया है।' प्रभु की थाली में से भात की मुट्ठी भरते हुए नित्यानन्दजी कहने लगे- 'अच्छा, तुम मत खाओ, मैं ही खाऊँगा।' यह कहकर प्रभु के उच्छिष्ट भात नित्यानन्द जी खाने लगे। प्रभु ने जल्दी से उनका हाथ पकड़ लिया। नित्यानन्द जी खाते-खाते ही चौके से उठकर भागने लगे। प्रभु भी उनका हाथ पकड़े हुए उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगे। इस प्रकार आँगन में दोनों में ही गुत्थम-गुत्था होने लगी। नित्यानन्द जी उस भात को खा ही गये। शचीमाता इन दोनों के ऐसे स्नेह को देखकर प्रेम के कारण बेहोश-सी हो गयीं। उन्हें प्रेमावेश में मूर्छा-सी आ गयी। माता की ऐसी दशा देखकर प्रभु जल्दी से हाथ-पैर धोकर चौके में गये और माता को अपने हाथों से वायु करने लगे। कुछ देर के पश्चात् माता को होश आया। माता ने प्रेम के आँसू बहाते हुए अपने दोनों पुत्रों को आशीर्वाद किया। माता का शुभाशीर्वाद पाकर दोनों ही परम प्रसन्न हुए और दोनों ने माता की चरण-वन्दना की। नित्यानन्द जी को पहुँचाने के निमित्त प्रभु उनके साथ श्रीवास के घर तक गये। इस प्रकार नित्यानन्द जी महाप्रभु की सन्निधि में रहकर अनिर्वचनीय सुख का रसास्वादन करने लगे। वे प्रभु के सदा साथ-ही-साथ लगे रहते। प्रभु जहाँ भी जाते, जिस भक्त के घर भी पधारते, नित्यानन्द जी उनके पीछे जरूर होते। महाप्रभु को भी नित्यानन्द जी के बिना कहीं जाना अच्छा नहीं लगता। सभी भक्त प्रभु को अपने-अपने घरों पर बुलाते और अपनी-अपनी भावना के अनुसार प्रभु के शरीर में भाँति-भाँति के अवतारों के दर्शनों का अनुभव करते। प्रभु भी भाँति-भाँति की लीला करते। कभी तो आप नृसिंह जी के आवेश में आकर जोरों से हुंकार करने लगते। कभी प्रह्लाद के भाव में दीन-हीन भक्त की भाँति गद्गदकण्ठ से प्रभु की स्तुति करने लगते। कभी आप श्रीकृष्णभाव से मथुरा जाने का अभिनय रचते और कभी अक्रूर के भाव में जोरों से रुदन करने लगते। कभी व्रज के ग्वालबालों की तरह क्रीड़ा करने लगते और कभी उद्धव की भाँति प्रेम में अधीर होकर रोने लगते। इस प्रकार नित्यानन्द जी तथा अन्य भक्तों के साथ नवद्वीपचन्द्र श्रीगौरांग भाँति-भाँति की लीलाओं के सुप्रकाश द्वारा सम्पूर्ण नवद्वीप को अपने अमृतमय शीतल प्रकाश से प्रकाशित करने लगे। |