श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी26. पूर्व बंगाल की यात्रा
उत्तर-तट को गौड़ देश कहते थे और दक्षिण-तट को बंगाल या राढ़ के नाम से पुकारते थे। आज जिसे पूर्व बंगाल कहते हैं, यथा- रत्नाकरं समारभ्य ब्रह्मपुत्रान्तगं शिवे। गौड़-देश वालों से बंग-देश वालों का आचार-विचार भी कुछ-कुछ भिन्न था और अब भी है। निमाई पण्डित ने पद्मा के किनारे-किनारे पूर्व बंगाल के बहुत-से स्थानों में भ्रमण किया। जो भी लोग इनका आगमन सुनते वे ही यथाशक्ति भेंट लेकर इनके पास आते। वहाँ के विद्यार्थी कहते- ‘हम बहुत दिनों से आपकी प्रशंसा सुन रहे थे। आपकी लिखी हुई व्याकरण की टिप्पणी बड़ी ही सुन्दर है। हमें अपने पाठ में उससे बहुत सहायता मिलती है।’ कोई कहते- ‘आपकी पद-धूलि से यह देश पावन बन गया, आपके प्रकाण्ड पाण्डित्य की हम प्रशंसा ही मात्र सुनते थे। आपके गुणों की कौन प्रशंसा कर सकता है?’ इस प्रकार लोग भाँति-भाँति से इनकी प्रशंसा और पूजा करने लगे। इनके साथियों को भय था कि पण्डित जी यहाँ भी नवद्वीप की भाँति चंचलता करेंगे तो सब गुड़ गोबर हो जायगा, किन्तु ये स्वयं देशकाल को समझकर बर्ताव करने वाले थे। कई मास तक ये पूर्व बंगाल में भ्रमण करते रहे, किन्तु वहाँ इन्होंने एक दिन भी चंचलता नहीं की। एक योग्य गम्भीर पण्डित की भाँति ये सदा बने रहते थे। इनसे जो जिस विषय का प्रश्न पूछता उसे उसी के प्रश्न के अनुसार यथावत उत्तर देते। यहाँ इन्होंने वैष्णवों की आलोचना नहीं की, किन्तु उलटा भगवद्भक्ति का सर्वत्र प्रचार किया। इन्होंने लोगों के पूछने पर भगवन्नाम का माहात्म्य बताया, भक्ति की श्रेष्ठता सिद्ध की और कलियुग में भक्ति-मार्ग को ही सर्वश्रेष्ठ, सुलभ और सर्वोपयोगी बताया। किन्तु ये बातें इन्होंने एक विद्वान पण्डित की ही हैसियत से कही थीं, जैसे विद्वानों से जो भी प्रश्न करो उसी का शास्त्रानुसार उत्तर दे देंगे। भक्ति का असली स्त्रोत तो इनका अभी अव्यक्तरूप से छिपा ही हुआ था। उसे प्रवाहित होने में अभी देरी थी। फिर भी इनके पाण्डित्यपूर्ण उत्तरों से राढ़-देशवासी श्रद्धालु मनुष्यों को बहुत लाभ हुआ। वे भगवन्नाम और भक्ति के महत्त्व को समझ गये, उनके हृदय में भक्ति का एक नया अंकुर उत्पन्न हो गया, जिसे पीछे से गौरांग की आज्ञानुसार नित्यानन्द प्रभु ने प्रेम से सींचकर पुष्पित, पल्लवित, फलान्वित बनाया। इस प्रकार ये शास्त्रीय उपदेश करते हुए राढ़-देश के मुख्य-मुख्य स्थानों में घूमने लगे। शाम को अपने साथियों को लेकर ये पद्मों में स्नान करते और घण्टों एकान्त में जलविहार करते रहते। लोग बड़े सत्कार से इन्हें खाने-पीने की सामग्री देते। इनके साथी अपना भोजन स्वयं ही बनाते थे। इस प्रकार इनकी यात्रा के दिन आनन्द से कटने लगे। |