श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी106. दक्षिण के तीर्थों का भ्रमण
भगद्विधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो। महापुरुषों का तीर्थ भ्रमण लोक कल्याण के ही निमित्त होता है। उनके लिये स्वयं कोई कर्तव्य नहीं होता, किन्तु फिर भी लोकशिक्षण के लिये, गृहस्थियों को पावन बनाने के लिये, भक्तों को कृतार्थ करने के लिये, तीर्थों को निष्पाप बनाने के लिये तथा पृथ्वी को पवित्र करने के लिये वे नाना तीर्थों में भ्रमण करते हुए देखे गये हैं। इसी से अब तक ये तीर्थ पावनता की रक्षा करते हुए संसारी लोगों के पाप तापों को शमन करने में समर्थ बने हुए हैं। महाप्रभु प्रात:काल गोदावरी में स्नान करके विद्यानगर से आगे के लिये चल दिये। वे गौतमी, गंगा, मल्लिकार्जुन, अहोबलनृसिंह, सिद्धवट, स्कन्धक्षेत्र, त्रिपठ, वृद्धकाशी, बौद्धस्थान, त्रिपती, त्रिमल्ल, पानानृसिंह, शिवकांची, विष्णुकांची, त्रिकालहस्ती, वृद्धकोल, शियालीभैरवी, काबेरीतीर, कुम्भकर्ण-कपाल आदि पुण्य तीर्थों में दर्शन स्नान आदि करते हुए और अपने दर्शनों से नर नारियों को कृतार्थ करते हुए श्रीरंग क्षेत्र पर्यन्त पहुँचे। रास्ते में महाप्रभु सर्वत्र श्रीहरि नामों का प्रचार करते जाते थे। लाखों मनुष्य प्रभु के दर्शनमात्र से ही भगवद्भक्त बन गये। प्रभु रास्ते में चलते-चलते इस मन्त्र का उच्चारण करते जाते थे- राम राघव! राम राघव! राम राघव! रक्ष माम्। महाप्रभु के मुख से नि:सृत इस मन्त्र को सुनते ही चारों ओर से स्त्री-पुरुष इन्हें घेरकर खड़े हो जाते और फिर ये उनके बीच में खड़े होकर नृत्य करने लगते। इसी प्रकार अपने संकीर्तन, नृत्य और दर्शनों से लोगों को सुख पहुँचाते हुए आषाढ़ मास में ये श्रीरंगक्षेत्र में पहुँचे। वहाँ परम भाग्यवान श्रीवेंकट भट्ट नामक एक वैष्णव ब्राह्मण के अनुरोध से प्रभु ने व्यतीत किया। वेंकट भट्ट के पुत्र श्रीगोपाल भट्ट ने महाप्रभु की रूप-माधुरी से विमुग्ध होकर उन्हें आत्मसमर्पण कर दिया। वेकंट भट्ट का सम्पूर्ण परिवार श्रीकृष्ण-भक्त बन गया। सभी को महाप्रभु की संगति से अत्यधिक आनन्द हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हे प्रभु आप जैसे भगवद्भक्त स्वयं तीर्थस्वरूप होते हैं और अपने चित्त में विराजमान गदाधारी श्रीकृष्ण के प्रभाव से सकल तीर्थो को भी (पात की पुरुषों के संसर्ग के कारण लगे हुए पापों को दूर करके) पवित्र तीर्थ कर देते हैं। श्रीमद्भा. 1/13/10