श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी105. राय रामानन्द से साधन-सम्बन्धी प्रश्न
श्रीमदभागवत में लिखा है कि ‘सर्वश्रेष्ठ भगवद्भक्त सम्पूर्ण चराचर प्राणियों मे भगवान के ही दर्शन करता है, उसकी दृष्टि में भगवान से पृथक कोई वस्तु है ही नहीं।’ आप सर्वश्रेष्ठ भागवतोत्तम हैं,[1] फिर आपको मेरे शरीर में अपने इष्टदेव के दर्शन होते हैं, तो इसमे आश्चर्य की कौन-सी बात है? प्रभु के ऐसे उत्तर को सुनकर राय कहने लगे- ‘प्रभो ! आप मेरी प्रवंचना न कीजिये। मुझे अपने यथार्थ रुप के दर्शन दीजिये। मुझे शुद्राधम समझकर अपने यथार्थ स्वरूप से वंचित न कीजिये।’ यह कहते-कहते राय महाशय प्रेम के आवेश में आकर मूर्च्छित होकर प्रभु के पैरों में गिर पड़े। उसी समय उन्हें प्रभु के शरीर में श्रीराधा और श्रीकृष्ण के सम्मिलित दर्शन हुए। प्रभु के शरीर में उस अदभुत रुप के दर्शन करके राय महाशय ने अपने को कृतकृत्य समझा और वे अपने भाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। सावधान होने पर प्रभु ने राय रामानन्द जी का दृढ़ आलिंगन किया और उनसे कहने लगे- ‘राय महाशय ! मेरे ये दस दिन आपके साथ श्रीकृष्ण-कथा सुनते सुनते बहुत ही आनन्दपूर्वक व्यतीत हुए। इतना अपूर्व रस पहले मुझे कभी प्राप्त नहीं हुआ था। आपकी कृपा से इस अत्यन्त ही दुर्लभ प्रेमरस का मैं यह किंचित रसास्वादन कर सका। अब मेरी इच्छा है कि आप शीघ्र ही इस राज-काज को छोड़कर पुरी आ जाइये। वहाँ हम दोनों साथ रहकर निरन्तर इस आनन्दरस का पान करते रहेंगे, आपकी संगति से मेरा भी कल्याण हो जायगा।’ हाथ जोड़े हुए अनन्त ही विनीतभाव से राय रामानन्द ने कहा- ‘प्रभो ! यह तो सब आपके ही हाथ में है। जब इस भव-जंजाल से छुड़ाकर अपने चरणों की शरण प्रदान करेंगे, तभी चरणों के समीप रहने का सुयोग प्राप्त हो सकेगा। मेरे सामर्थ्य के बाहर की बात है। आप ही अनुग्रह करके मुझे ऐसा धन्य-जीवन दान कर सकते हैं।’ प्रभु ने कहा- ‘अच्छा, अब जाइये। दक्षिण से लौटकर एक बार मैं आपसे मिलूँगा। तभी आप मेरे साथ पुरी चलियेगा।’ प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके राय रामानन्द जी अपने स्थान की ओर चले गये और प्रभु ने तो प्रात:काल आगे की यात्रा का विचार किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सर्वभूतेषु य: पश्येद्भगवद्भावमात्मन:। भूतानि भगवत्यात्मनयेष भागवतोत्तम: श्रीमद्भा. 11/2/45