श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी4. भक्त-वन्दना
प्रह्लादनारदपराशरपुण्डरीक- जिन्होंने दैत्यकुल में जन्म लेकर भी अच्युत की अनन्य भाव से अर्चा-पूजा की है, जिनके सदुपदेश से दैत्य बालक भी परम भागवत बन गये, जिन्होंने अपने प्रतापी पिता के प्रभाव की परवा न करके अपनी प्रतिज्ञा में परिवर्तन नहीं किया, जिन्हें हलाहल विष पान कराया गया, पर्वत के शिखर से गिराया गया, जल में डुबाया गया, अग्नि में जलाया गया तो भी जो अपने प्रण से विचलित नहीं हुए, जिनके कारण साक्षात भगवान को नृसिंहरूप धारण करना पड़ा, उन भक्ताग्रगण्य प्रह्लाद जी के चरणों में मेरा कोटि-कोटि नमस्कार है। जो संसार के कल्याण की इच्छा से सदा नाना लोकों में भ्रमण करते रहते हैं, जो ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं, जिनकी सम्पूर्ण लोकों में अप्रतिहत गति है, जो स्मरण करते ही सर्वत्र पहुँच जाते हैं, जिन्हें इधर-की-उधर मिलाने में आनन्द आता है, जो संगीत में पारंगत हैं और भक्ति के आदि आचार्य हैं, जो वीणा लेकर उच्च स्वर से अहर्निश ‘श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ! नारायण वासुदेव’ इन नामों का संकीर्तन करते रहते हैं ऐसे भक्तशिरोमणि देवर्षि नारद जी के चरणों में मेरा केटि-कोटि प्रणाम है। जो मूर्तिमान तप हैं, जो पुराणों के मर्मज्ञ हैं, जिन्होंने अनेक प्रकार के यज्ञों में विष्णु की आराधना की है, उन व्यासदेव जी के पिता परम भागवत महर्षि पराशर जी के पादपद्मों में अनन्त प्रणाम है। परम भागवत, परम वैष्णव पुण्डरीक ऋषि के चरणों में मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ। जिन्होंने एक वेद को चार भागों में विभक्त कर दिया है, जिन्होंने कलि के जीवों के उद्धार के निमित्त पंचम वेद महाभारत और अठारह पुराणों की रचना की है, जो ज्ञानावतार हैं, उन महर्षि वेदव्यास देव को मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ। जिनकी वैष्णवता के प्रभाव को सूचित करने के निमित्त भगवान ने शरण में आये हुए महर्षि दुर्वासा की स्वयं रक्षा न करके उन्हीं के पास भेजा था, जिनके परम भागवत होने की प्रशंसा से पुराणों के बहुत-से स्थल भरे पड़े हैं, उन राजर्षि अम्बरीष की चरणधूलि को मैं अपने मस्तक पर धारण करता हूँ। जो संसारी माया के प्रभाव से बचने के निमित्त बारह वर्ष तक माता के गर्भ में ही वास करते रहे, जिन्होंने मरणासन्न महाराज परीक्षित को सात दिनों में ही श्रीमद्भागवत की कथा सुनाकर मोक्ष का उत्तम अधिकारी बना दिया, उन अवधूतशिरोमणि महामुनि शुकदेव जी के चरणों में मैं श्रद्धा-भक्ति के साथ प्रणाम करता हूँ। जिन्होंने नैमिषारण्य की पुण्यभूमि में सूत के मुख से महाभारत और अठारहों पुराण श्रवण किये, जो ऋषियों के अग्रणी गिने जाते हैं, जिन्होंने हजारों वर्ष की दीक्षा लेकर भारी-भारी यज्ञ-याग किये हैं, उन सन्त-महन्त महर्षि शौनकजी की चरणवन्दना करके मैं अपने को कृतकृत्य बनाना चाहता हूँ। |