श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी3. गुरु-वन्दना
हे घोर संसाररूपी समुद्र के एकमात्र कर्णधार! इस शुष्कजीवन में सरसता लाने वाले गुरुदेव! हम प्रणतों की ओर दृष्टिपात कीजिये। तुम्हारी जगन्मोहन मूर्ति का ध्यान करते-करते दिन व्यतीत हो जाता है, रात्रि आ जाती है, फिर भी मैं तुम्हारी कृपा से वंचित ही बना रहता हूँ। तुम्हारे निकट रहते हुए भी ‘तुम्हारा’ नहीं बन पाता। तुम्हारी चरण-छाया के सन्निकट बना रहने पर भी शीतलता से वंचित रहता हूँ। किसे दोष दूँ, मेरा दुर्दैव ही मुझे तुम तक नहीं पहुँचने देता। बस, इस जीवन में एक ही आशा है, उसी का ध्यान करता रहता हूँ- वह दिन कैसा होयगा, जब गुरु गहैंगे बाँह। |