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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
5. गीता में अवतारवाद
जो अपनी स्थिति से नीचे उतरता है, उसको ‘अवतार’ कहते हैं। जैसे, कोई शिक्षक बालक को पढ़ाता है अर्थात् वह स्वयं ‘क, ख, ग’ आदि अक्षरों का उच्चारण करता है और उस बालक से उनका उच्चारण करवाता है तथा उसका हाथ पकड़कर उससे उन अक्षरों को लिखवाता है। यह बालक के सामने शिक्षक का अवतार है। गुरु भी अपने शिष्य की स्थिति में आकर अर्थात् शिष्य जैसे समझ सके, वैसी ही स्थिति में आकर उसकी बुद्धि के अनुसार उसको समझाते हैं। ऐसे ही मनुष्यों को व्यवहार और परमार्थ की शिक्षा देने के लिए भगवान् मनुष्यों की स्थिति में आते हैं, अवतार लेते हैं। भगवान् मनुष्यों की तरह जन्म नहीं लेते। जन्म न लेने पर भी वे जन्म की लीला करते हैं अर्थात् मनुष्यों की तरह माँ के गर्भ में आते हैं; परंतु मनुष्य की तरह गर्भाधान नहीं होता। जब भगवान् श्रीकृष्ण माँ देवकी जी के गर्भ में आते हैं, तब वे पहले वसुदेव जी के मन में आते हैं तथा नेत्रों के द्वारा देवकी जी में प्रवेश करते हैं और देवकी जी मनसे ही भगवान् को धारण करती है।[1] गीता में भगवान् कहते हैं कि मैं अज (अजन्मा) रहते हुए ही जन्म लेता हूँ अर्थात् मेरा अजपना ज्यों का त्यों ही रहता है। मैं अव्ययात्मा (स्वरूप से नित्य) रहते हुए ही अंतर्धान हो जाता हूँ अर्थात् मेरे अव्ययपने में कुछ भी कमी नहीं आती। मैं संपूर्ण प्राणियों का, संपूर्ण लोकों का ईश्वर (मालिक) रहते हुए ही माता-पिता की आज्ञा का पालन करता हूँ अर्थात् मेरे ईश्वरपने में, मेरे ऐश्वर्य में कुछु भी कमी नहीं आती। मनुष्य तो अपनी प्रकृति (स्वभाव-) के परवश होकर जन्म लेते हैं, पर मैं अपनी प्रकृति को अपने वश में करके स्वतंत्रतापूर्वक स्वेच्छानुसार अवतार लेता हूँ[2] भगवान् अपने अवतार लेने का समय बताते हुए कहते हैं कि जब-जब धर्म का ह्रास होता है और अधर्म बढ़ जाता है, तब-तब मैं अवतार लेता हूँ, प्रकट हो जाता हूँ।[3] अपने अवतार का प्रयोजन बताते हुए भगवान् कहते हैं कि भक्तजनों की, उनके भावों की रक्षा करने के लिए, अन्याय-अत्याचार करने वाले दुष्टों का विनाश करने के लिए और धर्म की भलीभाँति स्थापना, पुनरुत्थान करने के लिए मैं युग-युग में अवतार लेता हूँ।[4] इस तरह अज, अविनाशी और ईश्वर रहते हुए अवतार लेने वाले मुझ महेश्वर के परमभाव को न जानते हुए जो लोग मेरे को मनुष्य मानकर मेरी अवहेलना, तिरस्कार करते हैं, वे मूढ़ (मूर्ख) हैं। मूढ़लोग आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति का आश्रय लेकर जो कुछ आशा करते हैं, जो कुछ शुभकर्म करते हैं, जो कुछ विद्या प्राप्त करते हैं, वह सब व्यर्थ हो जाता है अर्थात् सत्- फल देने वाला नहीं होता।[5] जो मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी परमभाव को न जानते हुए मुझ व्यक्त परमात्मा को जन्मने मरने वाला मानते हैं, वे मनुष्य बुद्धिहीन हैं। ऐसे मनुष्यों के सामने मैं अपने असली रूप में प्रकट नहीं होता।[6] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ततो जगमंगलमच्युताशं समाहितं शूरसुतेन देवी। दधार सर्वात्मकमात्मभूतं काष्ठा यथाऽऽनन्दकरं मनस्तः।। (श्रीमद्भा. 10।2।18)....... यथा दीक्षाकाले गुरुः शिष्याय ध्यानमुपदिशति शिष्यश्च ध्यानोक्तां मूर्तिं हृदि निवेशयति तथा वसुदेवो देवकीदृष्टौ स्वदृष्टि निदधौ। दृष्टिद्वारा च हरिः संक्रामन् देवकीग में आविर्वभूव। एतेन रेतोरूपेणाधानं निरस्तम्।। (अन्वितार्थप्रकाशिका)
- ↑ (4।6)
- ↑ (4।7)
- ↑ (4।8)
- ↑ (9।11-12)
- ↑ (7।24-25)
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