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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
105. गीता संबंधी व्याकरण की कुछ बातें
श्रीमद्भगवद्गीता संस्कृत-भाषा में ही है। अतः गीता को गहराई से समझने के लिए संस्कृत व्याकरण का बोध होना आवश्यक है। जिन श्लोकों या पदों का अर्थ, भाव समझने में कठिनता मालूम देती है, उनको यहाँ व्याकरण के द्वारा समझाया जा रहा है। (1)
उक्त (अभिहित, कथित) और अनुक्त (अनभिहित, अकथित) के द्वारा कारक छः हो जाते हैं। पर उक्त में ‘प्रातिपदिकार्थलिंगपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा’[1]- इस सूत्र से प्रातिपदिकार्थ में प्रथमा विभक्ति ही होती है, और अनुक्त में द्वितीया, तृतीया आदि विभक्तियाँ होती हैं। जैसे, ‘मया ग्रामः गम्यते’ इस वाक्य में कर्म में लकार होने से कर्म उक्त हुआ; अतः ग्राम में प्रातिपदिकार्थ को लेकर प्रथमा विभक्ति हो गयी है और कर्ता अनुक्त होने से अर्थात् लकार के द्वारा उक्त न होने से ‘कर्तृकरणयोस्तृतीया’[2]- इस सूत्र से कर्ता में तृतीय विभक्ति हो गयी। जिन धातुओं में फल और व्यापार का आश्रय अलग-अलग हो, वे धातुएँ ‘सकर्मक’ कहलाती हैं, जैसे- ‘देवदत्तः ओदनं पचति’। यहाँ ‘पच्’ धातु का चावल का पकना, सिद्ध होना रूप फल चावलों में और पकाने की क्रिया, व्यापार देवदत्त में रहा। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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