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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
77. गीता का तात्पर्य
गीता का तात्पर्य संपूर्ण जीवों के कल्याण में है, जिसके लिए गीता ने विवेक और भावपरक साधनों का वर्णन किया है। गीता ने विवेक दो तरह का बताया है- 1. सत्-असत् का विवेक- जो सदा रहने वाला है, अपरिवर्तनशील है, जिसका कभी नाश नहीं होता, वह शरीर और परमात्मा ‘सत्’ है और जो सदा हमारे साथ नहीं रहता, परिवर्तनशील है, नाशवान् है, वह शरीर और संसार ‘असत्’ है।[1] 2. कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक- कर्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या है; प्रवृत्ति क्या है और निवृत्ति क्या है; धर्म क्या है और अधर्म क्या है; अपना धर्म क्या है और दूसरों का धर्म क्या है- यह अर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान (विवेक) हैं।[2] ऐसे ही भाव भी दो तरह का बताया है- 1. निष्कामभाव (त्यागभाव)- इस भाव में कर्मों की और कर्मों के फल की आसक्ति, कामना का त्याग होता है। गीता में ‘संगत्यक्त्वा’[3]; ‘प्रजहाति यदा कामान्’[4]; ‘विहाय कामान्यः सर्वान्’[5]; ‘त्यक्त्वा कर्मफलासंगम्’[6]; ‘संग त्यक्त्वा’[7]; ‘संग त्यक्त्वा फलानि’[8]; ‘संग त्यक्त्वा फलं चैव’[9]; ‘यस्तु कर्मफलत्यागी’[10] आदि पदों में निष्कामभाव का वर्णन हुआ है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (2।11-30; 13।19-23; 29-34; 14।5-20 आदि)
- ↑ (2।31-53; 3।8-16, 35; 4।15; 18।41-48 आदि)
- ↑ (2।48)
- ↑ (2।55)
- ↑ (2।72)
- ↑ (4।20)
- ↑ (5।11)
- ↑ (18।6)
- ↑ (18।9)
- ↑ (18।11)
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