विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
27. गीता में श्रद्धा
भगवान् ने गीता में श्रद्धा को मनुष्य मात्रक साक्षात् स्वरूप माना है-'यो यच्छ्रद्ध: स:'[1] अर्थात् जो जैसी श्रद्धा वाला होता है, वैसा ही उसका स्वरूप होता है। इंद्रियों से, अंत:करण से जिस विषया का ज्ञान नहीं होता, उस विषय में आदर भाव सहित जो दृढ़ विश्वास है, उसको 'श्रद्धा' कहते है। इस श्रद्धा के दो विभाग हैं- दैवी और आसुरी। जिस श्रद्धा से अर्थात् जिनमें श्रद्धा करने से मनुष्य का कल्याण हो जाता है, तत्त्व की प्राप्ति हो जाती है, भगवद्दर्शन हो जाते हैं, वह श्रद्धा का 'दैवी' विभाग है और जिस श्रद्धा से अर्थात जिसमें श्रद्धा करने से बंधन हो जाता है, अधोगति हो जाती है, वह श्रद्धा का 'आसुरी' विभाग है। इन्हीं दो विभागों को सात्त्विकी और राजसी-तामसी भी कहा जाता है अर्थात दैवी श्रद्धा को 'सात्त्विकी' और आसुरी श्रद्धा को 'राजसी-तामसी' कहा है। भगवान् और उनके मत में, महापुरुष और उनके वचनों, ग्रंथों और शास्त्रीय शुभकर्मों में सात्त्विक तप में श्रद्धा करना दैवी (सात्त्विकी) श्रद्धा है। देवताओं और सकाम अनुष्ठानों में, यक्ष-राक्षसों में, भूत-प्रेतादि में श्रद्धा करना आसुरी (राजसी-तमसी) श्रद्धा है। गीता में इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है- दैवी श्रद्धा1. भगवान् और उनके मत में श्रद्धा-सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान् भक्त मुझमें तल्लीन हुए मन से मेरा भजन करता है, वह मेरे मत में सर्वश्रेष्ठ योगी है।[2] नित्य-निरंतर मेरे में लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धा से युक्त होकर और मेरे में मन को लगाकर मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे में सर्वश्रेष्ठ हैं।[3] मेरे में श्रद्धा रखने वाले और मेरे परायण हुए जो भक्त इस धर्ममय अमृता का रुचिपूर्वक सेवन करने वाले हैं, वे मुझे अत्यंत प्रिय हैं।[4]जो मनुष्य दोष दृष्टिरहित होकर श्रद्धापूर्वक मेरे इस मत का सदा अनुष्ठान करते हैं, वे सम्पूर्ण कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।[5] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज