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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
34. गीता में त्रिविध रतियाँ
एक ‘आसक्ति’ होती है और एक ‘रति’ (प्रीति) होती है। ये दोनों सर्वथा भिन्न-भिन्न हैं। आसक्ति में अपने सुख की इच्छा रहती है। आसक्ति जड़ता को लेकर होती है और रति चिन्मय तत्त्व को लेकर होती है। आसक्ति से पतन होता है और रति से कल्याण होता है। आसक्ति में विनाशी वस्तुओं का महत्त्व रहता है और रति में अविनाशी तत्त्व का महत्त्व रहता है। आसक्ति से अवनति होती है और रति से उन्नति होती है। आसक्ति में राग का सुख होता है और रति में त्याग का सुख होता है। यदि सात्त्विक सुख में आसक्ति हो जाय तो वह भी बाँधने वाला हो जाता है। अतः मनुष्य में आसक्ति नहीं होनी चाहिए, प्रत्युत रति होनी चाहिए। गीता में कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग- तीनों ही योगों में आसक्ति त्याग करने की बात आयी है। जैसे- कर्मयोग में ‘मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि’,[1] ‘संग त्यक्त्वाऽऽत्मशुद्धये’[2] आदि ज्ञानयोग में ‘आसक्तिरनभिषंग्वः’,[3] ‘असक्तबुद्धिः सर्वत्र’[4] आदि और भक्तियोग में ‘संगत्यक्त्वा’[5] ‘संग्वर्जितः’,[6] ‘संग्विवर्जितः’[7] आदि। तीनों ही योगों में पहले साधन में रति होती है, फिर वही रति अपने लक्ष्य, ध्येय में परिणत हो जाती है जैसे- कर्मयोगी की अपने कर्तव्य कर्म को करने में रति होती है- ‘स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः’,[8] फिर वही रति अपने स्वरूप में हो जाती है- ‘यस्त्वात्मरतिः’[9] ज्ञानयोगी सबको अपना स्वरूप समझता है। अतः पहले उसकी संपूर्ण प्राणियों हित में रति होती है- ‘सर्वभूतहिते रताः’,[10] फिर वही रति अपने स्वरूप में हो जाती है- ‘योऽन्तः सुखोऽन्तरारामः’[11] भक्तियोगी की रति पहले भगवान् के नामजप, कथा-कीर्तन, गुणगान आदि में होती है- ‘रमन्ति’,[12] फिर वही रति भगवान् में हो जाती है- ‘प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः’[13] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (2।47)
- ↑ (5।11)
- ↑ (13।9)
- ↑ (18।49)
- ↑ (5।10)
- ↑ (11।55)
- ↑ (12।18)
- ↑ (18।45)
- ↑ (3।17)
- ↑ (5।25, 12।4)
- ↑ (5।24)
- ↑ (10।9)
- ↑ (7।17)
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