विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
85. गीता में आये परस्पर विरोधी पदों का तात्पर्य
यहाँ और वहाँ का प्रसंग अलग-अलग है। यहाँ[3] ज्ञानयोग का प्रसंग है; अतः सुनने मात्र से कोई भी अपने स्वरूप को नहीं जान सकता, प्रत्युत अपने आपसे ही अपने आपको जान सकता है। वहाँ[4] भक्तियोग का प्रसंग है; अतः भगवान् की कृपा से साधक भगवान् के तत्त्व को जान लेता है।
यह तो भगवान् की लीला है। जन्म लेते हुए भी भगवान् का अजपना मिटता नहीं, प्रत्युत अखंडित ही रहता है। भगवान् भक्तों के दास भी बन जाते हैं, पर उनका ईश्वरपना मिटता नहीं है। भगवान् जिनके दास बनते हैं, उन पर भी भगवान् का शासन ज्यों का त्यों ही रहता है। ऐसे ही अव्ययात्मा रहते हुए ही भगवान् अंतर्धान की लीला करते हैं; भक्तों का प्रेम बढ़ाने के लिए छिप जाते हैं। तात्पर्य है कि यह सब लीलापुरुषोत्तम की लीला है; अतः इसमें कोई विरोध या आश्चर्य नहीं है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज