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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
51. गीता में ‘यज्ञ’ शब्द की व्यापकता
गीता जी के श्लोकों पर विचार किया जाये तो यह बात सिद्ध होती है कि निष्कामभाव से किये गये शास्त्रविहित सभी शुभकर्मों का नाम ‘यज्ञ’ है। यज्ञों का विशेष वर्णन चौथे अध्याय में आता है। उसमें भगवान् कहते हैं कि केवल यज्ञ के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के संपूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं अर्थात् बंधनकारक नहीं होते- ‘यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते’[1] इसी बात को भगवान् तीसरे अध्याय के नवें श्लोक में दूसरे ढंग से कहते हैं कि ‘यज्ञ के लिए किए जाने वाले कर्मों के अतिरिक्त जो भी कर्म होते हैं, वे सभी बंधन कारक होते हैं’- ‘यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः’ चौथे अध्याय के चौबीसवें से तीसवें श्लोक तक भगवान् बारह प्रकार के यज्ञों का वर्णन करते हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (4।23)
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