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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
93. गीता में ‘यत्’ शब्द के दो बार प्रयोग का तात्पर्य
1. ‘यत् यदाचरित श्रेष्ठः......’[1] - सामान्य जनता के सामने श्रेष्ठ पुरुषों के आचरणों का ही असर पड़ता है। कारण कि कौन सा व्यक्ति किस समय, किस भाव से, कौन सी क्रिया कर रहे रहा है- इस तरफ जनता की दृष्टि प्रायः जाती ही नहीं। इसीलिए भगवान् ने अपना उदाहरण दिया है कि ‘त्रिलोकी में मेरे लिए कोई कर्तव्य नहीं है, तो भी मैं कर्तव्य कर्म करता हूँ’।[2] ज्ञानी को भी भगवान् ने लोकसंग्रह के लिए कर्तव्य-कर्म करने की आज्ञा दी है।[3] अतः श्रेष्ठ पुरुष क्रियारूप से जो-जो आचरण करते हैं, इन्हीं का सामान्य जनता पर असर पड़ता है। दो नंबर में उनके वचनों का असर पड़ता है। वह असर भी उन्हीं वचनों का पड़ता है, जिन वचनों के अनुसार वे आचरण करते हैं। जिन वचनों के अनुसार उनका आचरण नहीं होता, उन वचनों का इतना असर नहीं पड़ता; क्योंकि उन वचनों में शक्ति नहीं होती। परंतु साधक गुरु, संत महात्मा के वचनों की तरह केवल उनके वचनों से भी लाभ ले सकता है। 2. ‘यदा यदा हि धर्मस्य.....’[4]- भगवान् किसी एक युग में एक या दो बार अवतार लेते होंगे अथवा किसी युग में अवतार नहीं भी लेते होंगे- यह कोई नियम नहीं है। भगवान् के अवतार लेने में युग, वर्ष, महीना, दिन आदि कोई कारण नहीं है। जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का अभ्युत्थान होता है, तब-तब भगवान् प्रकट होते हैं अर्थात् जिस युग में लोगों का जैसा बर्ताव होना चाहिए, वैसा न होकर उससे ज्यादा गिर जाता है और अधर्म ज्यादा बढ़ जाता है, तब भगवान् अवतार लेते हैं। धर्म की हानि और अधर्म का बढ़ना- इसका माप-तौल मनुष्य नहीं कर सकता कि अब तो धर्म का बहुत ह्रास हो गया, अब अधर्म बहुत बढ़ गया तो अब भगवान् का अवतार होना ही चाहिए। इस विषय को पूरा तो भगवान् ही जानते हैं। हाँ, ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस युग में धर्म का जैसा बर्ताव होना चाहिए, वैसा न होकर उससे भी अधिक गिर जाता है, तब भगवान् अवतार लेते हैं। त्रेतायुग में राक्षसों ने ऋषियों को मारकर हड्डियों के ढेर लगा दिये थे, पर वर्तमान कलियुग में साधु-ब्राह्मण जीते जागते स्वतंत्रता से घूमते-फिरते हैं और अपने धर्म का प्रचार करते हैं। अगर आफत आती भी है तो बहुत थोड़ों पर आती है। कलियुग में तो त्रेतायुग की अपेक्षा बहुत अधिक पतन होना चाहिए, पर उतना पतन अभी नहीं दीखता। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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