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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
65. गीता में भक्तियोग की मुख्यता
विचारपूर्वक देखा जाय तो गीता में भगवान ने भक्ति की बात विशेष रूप से कही है। जहाँ अर्जुन का भक्ति विषयक प्रश्न नहीं है और जहाँ कर्मयोग, ज्ञानयोग आदि का प्रसंग चल रहा है, वहाँ भी भगवान ने अपनी ओर से भक्ति की बात कह दी है जैसे- दूसरे अध्याय में कर्मयोग की बात कहते-कहते जहाँ स्थितप्रज्ञ के लक्षणों का वर्णन आया है, वहाँ भगवान् 'मत्पर:'[1] पद से अपने परायण होने की बात कहते हैं। भगवान भक्ति को अपनी निष्ठा मानते हैं, साधक को निष्ठा नहीं। इसलिये तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान ने साधक की दो निष्ठाओं-सांख्ययोग और कर्मयोग का ही वर्णन किया और भक्ति की बात अपने मन में रखी। कर्मयोग का वर्णन करते हुए भगवान ने उसी भक्ति की बात 'मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य'[2] पदों से कह दी। चौथे अध्याय में योग की परम्परा बताते हुए 'मैने ही सृष्टि आदि में योग का उपदेश दिया था' -इसको भगवान ने परम रहस्य की बात कही अत: वहाँ 'भक्तोऽसि में सखा चेति रहस्यं ह्योतदृत्तामम्'[3] पदों में भी भक्ति ही झलकती है चौथे श्लोक में अर्जुन के प्रश्न करने पर भगवान ने पाँच वें श्लोक से चौदह वें श्लोक तक अवतार के प्रसंग में भक्ति की बात विशेषता से कही। फिर पाँच वें अध्याय में दोनों निष्ठाओं की बात कहकर पहले दसवें श्लोक में (ब्रह्मण्याध्याय कर्माणि) और फिर उन्तीसवें श्लोक में (भोक्तकारं यज्ञतपसा.....) अपनी तरफ से भगवन्निष्ठा वर्णन किया। छठे अध्याय में ध्यायनयोग का वर्णन करते हुए 'मच्चित्तो युक्त आसीत मत्पर:'[4] 'यो मां पश्यति सर्वत्र.......'[5]; 'सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थिन:'[6] और 'श्रद्धावान्भजते यो माम्:'[7]- इन श्लोकों में भगवान ने भाक्ति की बात कहीं है। सात वे अध्याय से लेकर बारह वे अध्याय तक तो मुख्यरूप से भगवन्निष्ठा का ही वर्णन है। तेरह वे अध्याय में ज्ञानयोग का वर्णन करते हुए 'मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी'[8] और 'भद्भक्त:'[9] पदों से भक्ति की बात कहीं गयी है। फिर चौदह वें अध्याय में 'मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते'[10] और 'ब्राह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्.....'[11]- इन श्लोकों में भक्ति का वर्णन किया गया है। पंद्रहवाँ अध्याय तो भक्ति का है ही। सोलहवें अध्याय में दैवी सम्पत्ति के रूप में भक्ति योग के साधकों के लक्षणों का वर्णन किया गया है। सत्रहवें अध्याय में तेईसवें श्लोक से सत्ताईसवें श्लोक तक 'ऊँ तत् सत्'- इन नामों के रूप में भक्ति का वर्णन हुआ है। अठारहवें अध्याय में 'मद्धक्तिं लभते पराम्'[12] और 'भक्त्या मामभिजानाति'[13]- इन पदों से भक्ति की बात कही गयी है अठारहवें अध्याय के ही छप्पनवें श्लोक से छाछठवें श्लोक तक तो भगवन्निष्ठा का ही मुख्य रूप से वर्णन किया गया है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (2।61)
- ↑ (3।30)
- ↑ (4।3)
- ↑ (6।14)
- ↑ (6।30)
- ↑ (6।31)
- ↑ (6।47)
- ↑ (13।10)
- ↑ (13।18)
- ↑ (14।23)
- ↑ (14।27)
- ↑ (18।54)
- ↑ (18।55)
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