विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
74. गीता में प्रवृत्ति और निवृत्तिपरक साधन
लौकिक दृष्टि से किसी क्रिया में प्रवृत्त होना ‘प्रवृत्ति’ और क्रिया से निवृत्त होना ‘निवृत्ति’ कहलाती है। ऐसे ही लौकिक दृष्टि से गृहस्थाश्रम प्रवृत्तिपरक और संन्यासाश्रम निवृत्तिपरक कहलाता है। परंतु गीता की दृष्टि से अगर भीतर में विषयों का राग, कामना, आसक्ति है तो बाहर की निवृत्ति भी प्रवृत्ति है और भीतर में राग, कामना, आसक्ति नहीं है तो बाहर की प्रवृत्ति भी निवृत्ति है। जो बाहर की क्रियाओं से तो निवृत्त हो गया है, पर मन से रागपूर्वक विषयों का चिंतन करता है, उसकी इस निवृत्ति को गीता ने मिथ्याचार (पाखण्ड) बताया है।[1] गीता में कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग- इन तीनों ही साधनों को प्रवृत्ति और निवृत्तिपरक बताया गया है। तात्पर्य है कि ये तीनों ही साधन प्रवृत्ति रहते हुए, गृहस्थ में रहते हुए, सब काम करते हुए भी किए जा सकते हैं और निवृत्ति में रहते हुए, सांसारिक कामों से निवृत्त होकर भी किये जा सकते हैं; जैसे- कर्मयोग1. प्रवृत्तिपरक कर्मयोग- जिसमें कर्मफल की इच्छा, कामना, आसक्ति न हो और अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन किया जाए, वह प्रवृत्तिपरक कर्मयोग है। तात्पर्य है कि शास्त्रविहित करते हुए, सांसारिक प्रवृत्ति में रहते हुए भी निर्लिप्त रहना प्रवृत्तिपरक कर्मयोग है। जैसे, कर्म करने में तेरा अधिकार है, फल में नहीं[2]; योग में अर्थात् समता में स्थित होकर तू कर्म कर[3]; न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता की प्राप्ति होती है और न कर्मों के त्याग से ही[4]; तुझे नियत कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है[5]; ब्रह्मा जी ने भी सृष्टि रचना के समय प्रजा से कर्तव्यपालन के लिए कहा[6]; भगवान् भी लोकसंग्रह के लिए कर्म करते हैं[7]; आदि। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज