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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
33. गीता में त्रिविध चक्षु
गीता में भगवान् ने तीन चक्षुओं का अर्थात् देखने की शक्तियों का वर्णन किया है- स्वचक्षु (चर्मचक्षु), दिव्य चक्षु और ज्ञानचक्षु। प्राणियों के अपने-अपने नेत्रों में जो देखने की शक्ति है, वह उनके 'स्वचक्षु' हैं। इसके विषय में भगवान् ने अर्जुन से कहा हैं कि तू इस स्वचक्षु से मेरे दिव्य विश्वरूप को नहीं देख सकता- 'न तु मां शक्य से द्रष्टुमने नैव स्वचक्षुषा'[1] तात्पर्य यह हुआ कि इस स्वचक्षु से सांसारिक वस्तुओं को ही देखा का सकता हैं, भगवान् के विराट् रूप को और शरीर संसार से अपने अलगाव- (भेद) को नहीं देखा जा सकता। जिसमें भगवान् के अलौकिक, दिव्य, ऐश्वर्ययुक्त विराट् रूप को देखने की शक्ति होती है तथा जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य की बातों को जानने की और प्राणियों के मन में उत्पन होने वाले भावों को देखने की सामर्थ्य होती है, उसे ‘दिव्यचक्षु’ कहते हैं। गीता में अर्जुन ने भगवान् के किसी एक अंश में स्थित विश्वरूप को देखने की इच्छा प्रकट की, तो भगवान् ने अपना विश्वरूप दिखाते हुए चार बार ‘देख। देख। देख! देख’ कहा पर अर्जुन को विश्वरूप के दर्शन नहीं हुए। तब भगवान ने अर्जुन से कहा कि ‘भैया! तुम स्वच्छु से मेरे इस रूप को नहीं देख सकते अतः मैं तुम्हें दिव्यचक्षु देता हूँ, जिससे तुम मेरे विराट रूप को देखो’- ‘दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्च मे योगमैश्वरम्’[2] ऐसा कहकर भगवान् ने अर्जुन को भगवान के अलौकिक, दिव्य विश्वरूप के दर्शन किये, जो साधारण मनुष्यों के लिए अत्यंत दुर्लभ है। उसकी महिमा गाते हुए भगवान् ने कहा कि मैंने कृपा करके यह तेजोमय दिव्यरूप दिखाया है, इसे पहले तुम्हारे सिवाय किसी ने भी नहीं देखा है।[3] तात्पर्य यह है कि ऐसे विश्वरूप के दर्शन तो दिव्यचक्षु से ही हो सकते हैं, चर्मचक्षु और ज्ञानचक्षु से नहीं। स्वयं भगवान् और भगवान् से अधिकार प्राप्त किये हुए भगवत्स्वरूप कारक महापुरुष ही कृपा करके किसी कृपा पात्र को दिव्यचक्षु दे सकते हैं। दिव्यचक्षु देने की सामर्थ्य हरेक संत महात्मा में नहीं होती। वेदव्यास जी महाराज ने महाभारत युद्ध के आरंभ में अपने कृपापात्र संजय को दिव्यचक्षु दिये थे, जिससे संजय ने भी भगवान् के विश्वरूप को देख लिया।[4] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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