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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
49. गीता में क्रिया, कर्म और भाव
जड़- (प्रकृति) में केवल परिवर्तनरूप क्रिया है, कर्म नहीं और चेतन अक्रिय है अर्थात उसमें न क्रिया है और न कर्म है। परंतु जब चेतन क्रियाशील प्रकृति के साथ अपना संबंध जोड़कर उसकी क्रिया को अपने में आरोपित कर लेता है अर्थात ‘मैं करता हूँ’- ऐसा अहंकृतभाव कर लेता है,[1] तब प्रकृति की क्रिया इसके लिए कर्म बन जाती है, जो कि शुभ-अशुभ फल देने वाली होती है। क्रिया कभी भी बाँधने वाली नहीं होती, प्रत्युत अहंकृत भावपूर्वक किया हुआ कर्म ही बाँधने वाला होता है। अतः गीता में कहा गया है कि जिसमें अहंकृतभाव और फलेच्छा नहीं है, वह अगर संपूर्ण प्राणियों को मार दे तो भी वह न मारता है और न बँधता ही है[2] क्योंकि उसके द्वारा केवल क्रिया होती है। जैसे, गंगा जी के द्वारा बहुतों का पालन-पोषण होता है; ब्राह्मण, गायें आदि सब उसका जल पीते हैं, पर इससे गंगा जी को कोई पुण्य नहीं होता, और गंगा जी के प्रवाह में बहुत से जीव बह जाते हैं, मर जाते हैं, पर इससे गंगा जी को कोई पाप नहीं लगता। कारण कि गंगा जी में ‘मैं सबका पालन-पोषण करती हूँ’ आदि अहंकृतभाव नहीं होता; अतः उसके द्वारा क्रियामात्र होती है, कर्म नहीं होता। सूर्य के प्रकाश में वेदों का पाठ होता है, यज्ञ आदि अनुष्ठान होते हैं तो सूर्य पुण्य का भागी नहीं होता और सूर्य के प्रकाश में कोई शिकारी पशुओं को मारता है तो सूर्य पाप का भागी नहीं होता। कारण कि सूर्य में ‘मैं प्रकाश करता हूँ’ ऐसा अहंकृतभाव न होने से उसके द्वारा केवल क्रिया होती है, कर्म नहीं होता। ऐसे ही संसार में कई चोरियाँ होती हैं, डकैतियाँ होती हैं, हत्याएँ होती हैं, पर उनमें हमारा अनुमोदन न होने से, उनके साथ हमारा संबंध न होने से उनके द्वारा किये गये कर्म हमारे लिये क्रियामात्र होते हैं अर्थात् हमें बाँधने वाले नहीं होते। इसी प्रकार हमारे शरीर, इंद्रियाँ, मन आदि के द्वारा जो क्रियाएँ होती हैं, उनमें अगर हमारा कर्तृत्वभाव और फलासक्ति नहीं है तो वे क्रियाएँ कर्म नहीं बनती, फलजनक नहीं बनतीं, जन्म-मरण देने वाली नहीं बनतीं। परंतु उन्हीं क्रियाओं में अगर हमारा कर्तृत्वभाव और फलासक्ति हो जाती है तो वे ही क्रियाएँ कर्म बन जाती हैं, बंधन कारक बन जाती हैं।[3] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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