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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
18. गीता में जाति का वर्णन
ऊँच-नीच योनियों में जितने भी शरीर मिलते हैं, वे सब गुण और कर्म के अनुसार ही मिलते हैं।[1] गुण और कर्म के अनुसार ही मनुष्य का जन्म होता है। भगवान् ने गीता में कहा है कि प्राणियों के गुणों और कर्मों के अनुसार ही मैंने चारों वर्णों- (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) की रचना की है- ‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’[2] अतः गीता जन्म- (उत्पत्ति) से ही जाति मानती है अर्थात् जो मनुष्य जिस वर्ण में जिस जाति के माता-पिता से पैदा हुआ है, उसी से उसकी जाति मानी जाती है। ‘जाति’ शब्द ‘जनी प्रादुर्भावे’ धातु से बनता है, इसलिए जन्म से ही जाति मानी जाती है, कर्म से नहीं। कर्म से तो ‘कृति’ होती है, जो ‘कृ’ धातु से बनती है। परंतु जाति की पूर्ण रक्षा उसके अनुसार कर्तव्य कर्म करने से ही होती है। भगवान् ने[3] जन्म के अऩुसार ही कर्मों का विभाग किया है। मनुष्य जिस वर्ण- (जाति) में जन्मा है और शास्त्रों ने उस वर्ण के लिए जिन कर्मों का विधान किया है, वे कर्म उस वर्ण के लिए ‘स्वधर्म’ हैं और उन्हीं कर्मों का जिस वर्ण के लिए निषेध किया है, उस वर्ण के लिए वे कर्म ‘परधर्म’ हैं। जैसे, यज्ञ कराना, दान लेना आदि कर्म ब्राह्मण के लिए शास्त्र की आज्ञा होने से ‘स्वधर्म’ हैं परंतु वे ही कर्म क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र के लिए शास्त्र का निषेध होने से ‘परधर्म’ हैं। स्वधर्म का पालन करते हुए यदि मनुष्य मर जाय, तो भी उसका कल्याण ही होता है परंतु पर धर्म- (दूसरों के कर्तव्य कर्म) का आचरण जन्म मृत्यु रूप भय को देने वाला है।[4] अर्जुन क्षत्रिय थे अतः युद्ध करना उनका स्वधर्म है। इसलिए भगवान् उनके लिए बड़े स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि क्षत्रिय के लिए सिवाय युद्ध और कोई कल्याणकारक काम नहीं है[5] अगर तू इस धर्ममय युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति का त्याग करके पाप को प्राप्त होगा।[6] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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