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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
84. गीतोक्त अन्वय व्यतिरेक वाक्यों का तात्पर्य
जिन बातों को काम में लाने से कार्य सिद्ध होता है, वे बातें ‘अन्वय’ कहलाती हैं और जिन बातों को काम में न लाने से कार्य सिद्ध नहीं होता, प्रत्युत बाधा लगती है, वे बातें ‘व्यतिरेक’ कहलाती हैं। ऐसी अन्वय और व्यतिरेक की बातों से विषय स्पष्ट होता है। अतः गीता में विषय को स्पष्ट करने के लिए भगवान् ने अनेक अन्वय और व्यतिरेक वाक्य कहे हैं; जैसे- 1. दूसरे अध्याय के चौबीसवें-पचीसवें श्लोकों में भगवान् ने कहा कि शरीरी (आत्मा) को नित्य, सर्वगत आदि समझने से शोक नहीं हो सकता; और छब्बीसवें सत्ताईसवें श्लोकों में कहा कि अगर तू शरीरी को नित्य जन्मने मरने वाला मान ले, तो भी शोक नहीं हो सकता क्योंकि जन्म लेने वाले की निश्चित मृत्यु होगी और मरने वाले का निश्चित जन्म होगा। -इसका तात्पर्य है कि किसी भी दृष्टि से मनुष्य के लिए शोक करना उचित नहीं है। 2. दूसरे अध्याय के इकतीसवें श्लोक में भगवान् ने कहा कि अपने धर्म को देखकर भी तुझे भयभीत नहीं होना चाहिए; क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्ममय युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याण का साधन नहीं है; और तैंतीसवें श्लोक में कहा कि अगर तू इस धर्ममय युद्ध को नहीं करेगा तो तेरे को पाप लगेगा। -इसका तात्पर्य है कि मनुष्य किसी भी दृष्टि से, किसी भी अवस्था, परिस्थिति में, किसी भी संकट में अपने कर्तव्य-कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए, प्रत्युत अपने कल्याण के लिए निष्कामभावपूर्वक अपने कर्तव्य कर्म का तत्परता से पालन करना चाहिए। 3. दूसरे अध्याय के बासठवें तिरसठवें श्लोकों में भगवान् ने बताया कि रागपूर्वक विषयों का चिंतन करने मात्र से पतन हो जाता है, और चौसठवें पैसठवें श्लोकों में बताया कि रागरहित होकर विषयों का सेवन करने से स्थितप्रज्ञता की अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। इसका तात्पर्य है कि साधक को राग द्वेष मिटाने चाहिए; क्योंकि ये दोनों ही साधक के शत्रु हैं[1] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (3।34)
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