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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
19. गीता में चार आश्रम
गीता में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चारों वर्णो का वर्णन तो स्पष्ट रूप से आया है जैसे- 'चातुर्वर्ण्य मया सृष्टम्'[1] 'ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप'[2] आदि परंतु ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्ररथ और संन्यास- इन चारों आश्रमों का वर्णन स्पष्ट रूप से नहीं आया है। इन चारों आश्रमों का वर्णन गीता में गौणतारो, संकेत रूप से माना जा सकता है जैसे- 1. जिस परमात्मतत्त्व की इच्छा रखकर ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं- 'यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति'[3] पदों से ब्रह्मचर्य-आश्रम का संकेत मान सकते हैं। 2. जो मनुष्य दूसरों को उनका भाग न देकर स्वयं अकेले ही भोग करता है, वह चोर ही है- 'तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव स:'[4]) जो केवल अपने शरीर के पोषण के लिये ही पकाते हैं वे पापी लोग तो पापका ही भक्षण करते हैं- ‘भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्’[5] आदि पदों से गृहस्थ आश्रम का संकेत मान सकते हैं। 3. कितने ही मनुष्य तपस्यारूप यज्ञ करने वाले हैं- ‘तपोयज्ञाः’ पद से वानप्रस्थ- आश्रम का संकेत मान सकते हैं। 4. जिसने सब प्रकार के संग्रह का सर्वथा त्याग कर दिया है- ‘त्यक्तसर्वपरिग्रहः’[6] पदों से संन्यास आश्रम का संकेत मान सकते हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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