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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
43. गीतोक्त योग के सब अधिकारी
अन्य शास्त्रों में ज्ञान, योग आदि मार्गों के अलग-अलग अधिकारी बताये गये हैं; जैसे- जो साधन-चतुष्टय से संपन्न है, वह ज्ञान का अधिकारी है; जो मूढ़ और क्षिप्त वृत्तिवाला नहीं है, प्रत्युत विक्षिप्त वृत्तिवाला है, वह पातञ्जलयोग का अधिकारी है आदि-आदि। परंतु भगवान् की यह एक विचित्र उदारता, दयालुता है कि उन्होंने गीता में मनुष्यमात्र को भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग का अधिकारी बताया है। तात्पर्य है कि भगवान् की प्राप्ति चाहने वाले सब के सब मनुष्य गीतोक्त योग के अधिकारी हैं। भक्तियोग के अधिकारी
भगवान् ने भक्ति के अधिकारियों का वर्णन करते हुए पहले नंबर में दुराचारी का नाम लिया कि अगर दुराचारी से दुराचारी मनुष्य भी अनन्यभाव से मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिए; क्योंकि उसने मेरी तरफ चलने का निश्चय कर लिया है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली शांति को प्राप्त हो जाता है।[1] दूसरे नंबर में पापयोनि का नाम लिया, जिनका जन्म पूर्वकृत पापों के कारण चाण्डाल आदि की योनि में हुआ है।[2] चौथे नंबर में पवित्र ब्राह्मण और राजर्षि क्षत्रियों का नाम लिया, जो कि जन्म और आचरण की दृष्टि से उत्तम हैं।[4] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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