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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
79. गीता में अर्जुन द्वारा स्तुति, प्रार्थना और प्रश्न
स्तुति में कृष्ण की महिमा, गुण, प्रभव आदि का कथन (गान) होता है। प्रार्थना में भगवान के गुणों आदि को तत्त्व से जानने की अथवा भगवान् से कुछ पाने की इच्छा होती है। अपने हृदय में कोई हलचल, संदेह, जिज्ञासा होती है, उसे दूर करने के लिये प्रश्न होता है। स्तुति में भगवान के प्रति आस्तिकभाव अधिक होता है। प्रार्थना आस्तिकभव के साथ-साथ अपनी इच्छा भी रहती है। प्रश्न में केवल अपनी जिज्ञासाकी पूर्ति करना होता है। स्तुति में पूज्यभाव अधिक होता है। प्रार्थना में पूज्यभाव के साथ-साथ विश्वास और अपनी इच्छा भी होती है। प्रश्न में केवल विषय का समाधान करने की इच्छा रहती है। स्तुति में भगभाव के गुणगान की मुख्यता रहती है। प्रार्थना में गुणगान की मुख्यता होते हुए भी साथ में अपनी माँग रहती है। प्रश्न भी गुणमान होता है, पर उसमें जिज्ञासा की पूर्ति करना, संदेह दूर करना मुख्य रहता है। इस दृष्टि से प्रश्न में जितने अंश में भगवान की विशेषटा दीखती है, उतना अश स्तुति है और जितने अंश में समाधान की इच्छा है उतना अंश प्रार्थना है।[1] गीता में अर्जुन जहाँ-जहाँ बोले है, वहाँ किसमें स्तुति है, किसमें प्रार्थना है और किसमें प्रश्न है- इसको संक्षेप से नीचे दिया जाता है- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जहाँ भक्त का भगवान के साथ धनिष्ठ अपनापन (सख्यभाव) होता है, वहाँ भगवान के गुण दीखते हुए भी स्तुति, प्रार्थना और प्रश्न नहीं होते। कारण कि जब 'मैं भगवान हूँ' और 'भगवान मेरे है', अव भगवान में क्या विशेषता है और मुझमें क्या कमी है? भक्त का भगवान के साथ जो घनिष्ठ अपनापन, आत्मीयता, एकता, प्रेम है, उससे भगवान को विशेष आनन्द मिलता है (भगवान् का यह विशेष आनन्द ही भक्त का आनन्द होता है; भक्त का अपना कोई विशेष आनन्द नहीं होता)। इस प्रेम का नाम ही माधुर्य है। इसमें स्तुति, प्रार्थना और प्रश्न- ये तीनों ही नहीं होते।
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