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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
91. गीता में आये ‘अवशः’ पद का तात्पर्य
शरीर, इंद्रियों आदि से सुख लेने की जो आदत पड़ी हुई है उसको स्वभाव कहते हैं। इस स्वभाव के परवश, अवश, अधीन हुए प्राणियों से प्रकृतिजन्य गुण कर्म कराते हैं- ‘कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृति जैर्गुणैः’[1] यह स्वभाव की अवशता है। श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट मनुष्य भोगों की बहुलता के कारण भोगों के परवश हो जाता है, भोगों की तरफ खिंच जाता है, भोगों के परवश होने पर भी पूर्वजन्मकृत अभ्यास के कारण वह पुनः साधन में खिंच जाता है- ‘पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः’[2] यह भोगों की अवशता है। एक हजार चतुर्युगी बीतने पर जब ब्रह्मा जी की रात का आरंभ होता है, तब प्रलय होता है। उस प्रलय में प्रकृति के, गुणों के अथवा स्वभाव के परवश हुए जीव ब्रह्माजी के सूक्ष्मशरीर में लीन हो जाते हैं। फिर जब ब्रह्माजी के दिन का आरंभ होता है, तब सर्ग होता है। उस सर्ग में सभी परवश जीव ब्रह्माजी के सूक्ष्म शरीर से पैदा होते हैं- ‘रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे’[3] यह प्रलय और सर्ग की अवशता है। ब्रह्माजी के सौ वर्ष पूरे होने पर जब महाप्रलय होता है, तब संपूर्ण जीव प्रकृति में लीन हो जाते हैं। जब प्रकृति में लीन उन जीवों के कर्म परिपक्व हो जाते हैं, तब भगवान् प्रकृति को अपने वश में करके महासर्ग के आदि में उन परवश हुए जीवों की रचना कर देते हैं- ‘भूतग्राममिमं कृत्स्रमवशं प्रकृतेर्वशात्’[4] यह महाप्रलय और महासर्ग की अवशता है। पूर्वकर्मों के अनुसार यह जीव जिस वर्ण में जन्मा है और वहाँ पर माता-पिता के रज-वीर्य के अनुसार इसका जैसा स्वभाव बना हुआ है, उस स्वभाव के यह परवश रहता है और उसके अनुसार ही यह कर्म करने में बाध्य होता है- ‘कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्’[5] यह स्वभाव की अवशता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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