विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
45. गीता में तीनों योगों की महत्ता
भगवान् ने गीता में तीनों योगों को स्वतंत्र साधन बताया है और उनकी नौ-नौ बातें बताकर उनकी महत्ता प्रकट की है- कर्मयोग1. श्रेष्ठ- कर्मयोग ज्ञानयोग से श्रेष्ठ है- ‘तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते’[1] कारण कि कर्मयोग में संपूर्ण कर्म कर्तव्य परम्परा सुरक्षित रखने के लिए अर्थात् दूसरों के लिए ही किए जाते हैं। अतः अपने सुख आराम, आदर महिमा, विद्या बुद्धि का अभिमान, भोग और संग्रह की इच्छा आदि का त्याग सुगमता से हो जाता है, जबकि ज्ञानयोग में विवेक-विचार के द्वारा अपने सुख-आराम का त्याग करने में कठिनात पड़ती है। कर्मयोग ध्यानयोग से भी श्रेष्ठ है- ‘ध्यानात्कर्मफलत्यागः’[2] कारण कि कर्मयोग में संपूर्ण कर्मों के फल का अर्थात् फलेच्छा का त्याग है, जबकि ध्यानयोग में कर्मफल का त्याग नहीं है। कर्मों का त्याग करने की अपेक्षा आसक्ति रहित होकर कर्म करने वाला कर्मयोगी श्रेष्ठ है- ‘कर्मेंद्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते’[3] कारण कि आसक्तिरहित होकर कर्म करना योग- (समता) पर आरूढ़ होने में कारण है[4] और कर्मों का त्याग करने मात्र से सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती।[5] 2. सुगम- कर्मयोगी सुखपूर्वक बंधन से मुक्त हो जाता है- ‘सुखं बंधात्प्रमुच्यते’[6] कारण कि उसमें राग-द्वेष नहीं होते, प्रत्युत समता रहती है। ऐसे तो संपूर्ण मनुष्य कर्म करते ही हैं, पर राग-द्वेष होने से, सिद्धि-असिद्धि में सुखी-दुखी होने से वे बंधन से मुक्त नहीं हो पाते। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज