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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
20. गीता में सैनिकों के लिये शिक्षा
भारतीय शिक्षा यह कह रही है कि किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में मनुष्य में कायरता, डरपोकपना, कर्तव्य-विमुखता आदि किञ्चिन्मात्र भी नहीं आने चाहिये, प्रत्युत मनुष्य को प्रत्येक परिस्थिति में उत्साहित रहना चाहिये। अठारहवें अध्याय के छब्बीसवें श्लोक में 'सात्त्विक कर्ता' के लक्षण बताते हुए भगवान ने छ: बातें कही हैं- आसक्ति और अहंकार-इन दो बातों का त्याग करना, धैर्य और उत्साह- इन दो बातों को धारण करना तथा सिद्धि और असिद्धि- इन दो बातों में निर्विकार रहना। इन छ: बातों में से मनुष्यमात्र के लिये दो बातें मुख्य हैं- धैर्य और उत्साह। कर्तव्यरूप से जिस कार्य को स्वीकार किया है, उसमें डटे रहा 'धैर्य' है और उस स्वीकृति के अनुसार कार्य में प्रवण, तत्पर रहना 'उत्साह' है। जैसे पर्वत अचल होता है, ऐसे ही सैनिक को अपने कर्तव्य-कर्म में अचल रहना चाहिये। किसी भी विपरीत अवस्था परिस्थिति आदि में किञ्चिन्मात्र भी विचलित नहीं होना चाहिये। कारण कि शरीर तो प्रतिक्षण ही मर रहा है, मौत में जा रहा है और स्वयं अमर है, वह कभी मरता ही नहीं।[1] अत: मरने से कभी भी डरना नहीं चाहिये। दूसरी बात, अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मर भी जाय तो उसमें कल्याण है- ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः’[2] परंतु अपने कर्तव्य से च्युत होने में भय है अर्थात इस लोक में भी अपमान, तिरस्कार, हानि है और परलोक में भी दुर्गति है- ‘परधर्मों भयावहः’[3] अतः जो युद्ध कर्तव्यरूप से स्वतः प्राप्त हो जाय, उसे करने में विशेष उत्साह रहना चाहिए। सैनिकों के लिए युद्ध के समान कल्याण कारक दूसरा कोई धर्म नहीं है; अतः वे सैनिक बड़े भाग्यशाली हैं, जिनको अनायास धर्मयुक्त युद्ध प्राप्त हो जाता है।[4] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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