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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
55. गीता में निर्द्वन्द्व होने की महत्ता
सांसारिक कर्म में संसार का संबंध रहता है और पारमार्थिक साधन में संसार से विमुख होकर भगवान् के सम्मुख होना पड़ना है; अतः संसार का काम करें या पारमार्थिक साधन करें- यह द्वंद्व है। इस द्वंद्व के निवारण का उपाय है कि सांसारिक काम संसार के लिए न केवल भगवान् के लिए किया जाए। केवल भगवत्प्रीत्यर्थ करने से सब का सब काम धंधा, सब की सब क्रियाएँ साधन हो जाती हैं। गीता में नवें अध्याय के सत्ताईवं श्लोक में भगवान् ने ‘यत्करोषि’ (तू जो कुछ करता है), ‘यदश्रासि’ (तू जो कुछ खाता-पीता है), ‘यज्जुहोषि’ (तू जो कुछ यज्ञ आदि करता है), ‘ददासि यत्’ (तू जो कुछ दान देता है) और ‘यत्तपस्यसि’ (तू जो कुछ तप करता है)- पाँच क्रियाएँ दी हैं। इनमें से ‘करोषि’ और ‘अश्रासि’- ये दो क्रियाएँ सांसारिक हैं तथा ‘जुह्वोषि’, ‘ददासि’ और ‘तपस्यसि’- ये तीन क्रियाएँ शास्त्रीय हैं, पर न पाँचों क्रियाओं का संबंध ‘मदर्पणम्’- (भगवदर्पण) के साथ है। कारण कि पाँचों क्रियाओं के साथ ‘यत्’ शब्द लगा हुआ है और अर्पण करने के साथ ‘तत्’ पद लगा हुआ है- ‘तत्कुरुष्व मदर्पणम्’ अतः ये पाँचों क्रियाएँ केवल भगवत्प्रीत्यर्थ करनी चाहिए। इनमें किञ्चिन्मात्र भी अपमान नहीं रहन चाहिए। अर्पण दो तरह से होता है-
सब भगवान् के ही हैं -ऐसा मान लेना। इन दोनों में से दूसरा अर्पण अर्पण श्रेष्ठ है क्योंकि इसमें सब कुछ भगवान् के ही समर्पित है। इस तरह अर्पण करने वाले भक्त की लौकिक और शास्त्रीय सभी क्रियाएँ पारमार्थिक हो जाती हैं, भगवत्प्रीत्यर्थ हो जाती हैं। फिर उसमें द्वंद्व नहीं रहता। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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