विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
16. गीता और गुरु तत्त्व
अर्जुन हरदम भगवान् के साथ ही रहते थे भगवान् के साथ ही खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते-जागते थे; परंतु भगवान् ने उनको गीता का उपदेश तभी दिया, जब उनके भीतर अपने श्रेय की, कल्याण की, उद्धार की इच्छा जाग्रत हो गयी- ‘यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’[1] ऐसी इच्छा जाग्रत होने के बाद वे अपने को भगवान् का शिष्य मानते हैं और भगवान् के शरण होकर शिक्षा देने के लिए प्रार्थना करते हैं- ‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’[2] इस प्रकार कल्याण की इच्छा जाग्रत होने के बाद अर्जुन ने अपने को भगवान् का शिष्य मानकर शिक्षा देने के लिए भगवान् से प्रार्थना की है, न कि गुरु-शिष्य परंपरा की रीति से भगवान् को गुरु माना है। भगवान् ने भी शास्त्र पद्धति के अनुसार अर्जुन को शिष्य बनाने के बाद, गुरु-मंत्र देने के बाद, सिर पर हाथ रखने के बाद उपदेश दिया हो- ऐसी बात नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि पारमार्थिक उन्नति में गुरु-शिष्य का संबंध जोड़ना आवश्यक नहीं है, प्रत्युत अपनी तीव्र जिज्ञासा, अपने कल्याण की तीव्र लालसा का होना ही अत्यंत आवश्यक है। अपने उद्धार की जोरदार लगन होने से साधक को भगवत्कृपा से, संत महात्माओं के वचनों से, शास्त्रों से, ग्रंथों से, किसी घटना-परिस्थिति से, किसी वायुमंडल से अपने आप पारमार्थिक उन्नति की बातें, साधन-सामग्री मिल जाती है और वह उसे ग्रहण कर लेता है। गीता बाह्य विधियों को, बाह्य परिवर्तन को उतना आदर नहीं देती, जितना आदर भीतर के भावों को, विवेक को, बोध को, जिज्ञासा को, त्याग को देती है। यदि गीता बाह्य विधियों को, परिवर्तन को, गुरु-शिष्य के संबंध को ही आदर देती तो वह सब संप्रदायों के लिए उपयोगी तथा आदरणीय नहीं होती अर्थात् गीता जिस संप्रदाय की विधियों का वर्णन करती, वह उसी संप्रदाय की मानी जाती। फिर गीता प्रत्येक संप्रदाय के लिए उपयोगी नहीं होती और उसके पठन-पाठन, मनन-चिंतन आदि में सब संप्रदाय वालों की रुचि भी नहीं होती। परंतु गीता का उपदेश सार्वभौम है। वह किसी विशेष संप्रदाय या व्यक्ति के लिए नहीं है, प्रत्युत मानवमात्र के लिए है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज