विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
56. गीता में अहंता ममता का त्याग
गीता में भगवान् ने कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग- इन तीनों ही मार्गों में अहंता ममता के त्याग की बात कही है जैसे- कर्मयोग में ‘निर्ममो निरहंकारः’[1] पदों से, ज्ञानयोग में ‘अहंकारं.....विमुच्य निर्ममः’[2] पदों से और भक्तियोग में ‘निर्ममो निरहंकारः’[3] पदों से साधक का अहंता ममता से रहित होना बताया गया है। परंतु तीनों योगमार्गों में अहंता-ममता का त्याग करने के प्रकार में अंतर में है जैसे- कर्मयोग में पहले कामना का त्याग होता है क्योंकि कर्मयोगी आरंभ में ही निष्कामभाव से कर्म करना शुरू कर देता है। जब कामना का सर्वथा त्याग हो जाता है, तो फिर स्पृहा, ममता और अहंता का भी स्वतः त्याग हो जाता है। दूसरे अध्याय के इकहत्तरवें श्लोक में भगवान् ने कर्मयोगी में पहले कामनाओं का त्याग बताया है, फिर स्पृहा, ममता और अहंता का त्याग बताया है। ज्ञानयोग में पहले अहंता का त्याग होता है। जब मूल अहंता का ही त्याग हो जाता है, तो फिर ममता, स्पृहा और कामना का भी स्वाभाविक ही त्याग हो जाता है। अठारहवें अध्याय के सत्रहवें श्लोक में भगवान् ने ज्ञानयोगी में पहले अहंता का त्याग बताया है, फिर लिप्तता- (फलेच्छा) का त्याग बताया है। भक्तियोग में भगवान् की शरण होने पर ‘मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं’- इस तरह अहंता बदल जाती है, फिर भगवान् की कृपा से भक्तियोगी अहंता, ममता, स्पृहा और कामना से रहित हो जाता है। अठारहवें अध्याय के छाछठवें श्लोक में भगवान् कहते हैं कि तू सब धर्मों का आश्रय छोड़कर केवल एक मेरी शरण में आ जा मैं तुझे संपूर्ण पापों- (अहंता-ममता आदि दोषों) से मुक्त कर दूँगा। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज