विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
50. गीता में कर्म की व्यापकता
परमात्मा और परमात्मा की शक्ति प्रकृति- ये दो हैं। इनमें परमात्मा तो हरदम एकरूप, एकरस रहते हैं, उनमें कभी परिवर्तन नहीं होता और प्रकृति हरदम परिवर्तनशील है, वह कभी परिवर्तन रहित नहीं होती।[1] इस प्रकृति में जो कुछ परिवर्तन होता है वह सब ‘क्रिया’ है और क्रियाओं का पुञ्ज ‘पदार्थ’ है। प्रकृति में स्वाभाविक होने वाली क्रियाओं के साथ जब अहंकार लग जाता है, तब उसकी ‘कर्म’ संज्ञा हो जाती है। वे ही कर्म (चाहे कायिक हों, चाहे वाचिक हों, चाहे मानसिक हों) इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित फल देने वाले हैं।[2] उन कर्मों को करने के जो भाव हैं, वे कर्ता में ही रहते हैं। ये ‘कर्म’ और ‘भाव’ शुभ तथा अशुभ- दोनों तरह के होते हैं। ‘शुभ’ कर्म और भाव मुक्ति देने वाले तथा ‘अशुभ’ कर्म और भाव पतन करने वाले होते हैं। इन्हीं कर्म और भाव को भगवान् ने चौथे अध्याय के तेरहवें श्लोक में ‘कर्म’ और ‘गुण’ नाम से कहा है और इन्हीं से चारों वर्णों की रचन करने की बात कही है। तात्पर्य है कि ‘कर्म’ नाम शुभ-अशुभ क्रियाओं का है और ‘गुण’ नाम शुभ-अशुभ भावों का है। इन क्रियाओं और भावों को लेकर ही चारों वर्णों की रचना हुई है। भगवान् ने चारों वर्णों के जो लक्षण बताये हैं, उन सबको ‘स्वभावज कर्म’ नाम से कहा है। इनमें ब्राह्मण के शम, दम, तप, शौच आदि नौ गुणों को और क्षत्रिय के शौर्य, तेज, धृति आदि सात गुणों को भी कर्म कहा है तथा वैश्य के कृषि, गौरक्ष्य और वाणिज्य- इन तीन कर्मों को और शूद्र के परिचर्यात्मक कर्म को भी कर्म कहा है। वैश्य और शूद्र के कर्मों को तो कर्म कहना ठीक है क्योंकि वे कर्म ही हैं, पर भगवान् ने ब्राह्मण और क्षत्रिय के गुणों को भी कर्म कहा है! गुणों को भी कर्म कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति के साथ संबंध रखते हुए मनुष्य के द्वारा जो कुछ भी होता है, वह सब कर्म ही है अर्थात् प्रकृति के साथ संबंध जोड़ने से भाव, क्रिया आदि भी कर्म ही कहे जाते हैं, जो कि जन्म और अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों को देने वाले हो जाते हैं। परंतु जो मनुष्य प्रकृति से सर्वथा संबंध विच्छेद करके परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाता है, उसके शरीर से कर्म होते हुए भी वे ‘अकर्म’ कहलाते हैं। अपने स्वरूप में स्थित रहना ‘अकर्म’ है और अकर्म में स्थित रहते हुए शरीर, मन, बुद्धि आदि के द्वारा जो कर्म होते हैं, वे सभी कर्म ‘अकर्म’ होते हैं। इसका वर्णन भगवान् ने चौथे अध्याय के अठारहवें श्लोक में किया है कि जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह योगी है, बुद्धिमान् है और उसके लिये कुछ भी करना बाकी नहीं है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यद्यपि प्रकृति सर्ग और महासर्ग की अवस्था में सक्रिय तथा प्रलय और महाप्रलय की अवस्था में अक्रिय कही जाती है, तथापि यह अक्रिय- अवस्था सक्रिय- अवस्था की अपेक्षा कही जाती है। वास्तव में प्रकृति कभी अक्रिय नहीं रहती। इसमें सूक्ष्म परिवर्तन होता ही रहता है, तभी तो प्रलय और महाप्रलय के बाद सर्ग और महासर्ग होता है। जब प्रलय और महाप्रलय होता है, तब आधे प्रलय और महाप्रलय तक प्रकृति प्रलय और महाप्रलय की तरफ जाती है और आधे प्रलय और महाप्रलय के बाद प्रकृति सर्ग और महासर्ग की तरफ जाती है।
- ↑ (18।12)
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