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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
40. गीता में स्वभाव का वर्णन
गीता में चार प्रकार के स्वभाव का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है- 1. समष्टि प्रकृतिगत स्वभाव- पेड़ पौधों का उत्पन्न होना, बड़ा होना, फल फूलों का लगना आदि और ऐसे ही मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के शरीरों का उत्पन्न होना, बच्चे से जवान होना, जवान से बूढ़ा होना तथा शरीर में बल का घटना, बढ़ना आदि जो कुछ परिवर्तन संसार में हो रहा है, वह सब समष्टि प्रकृति का स्वभाव है। समष्टि प्रकृतिगत स्वभाव किसी के लिए भी दोषी और अहितकर नहीं होता, प्रत्युत शुद्ध, पवित्र करने वाला होता है। बचपन से जवान और जवान से बूढ़ा होना एवं रोगी से नीरोग और नीरोग से रोगी होना[1] क्या दोषी होगा? नहीं, यह तो पाप पुण्य का फल भुगताकर शुद्ध करता है। परंतु प्रकृति के इस स्वभाव (स्वाभाविक परिवर्तन) में मनुष्य अपनी मनमानी करने लग जाता है अर्थात् राग-द्वेषपूर्वक शास्त्र की आज्ञा से विरुद्ध मनमाने ढंग से कर्म करने लग जाता है, जिससे वह बंधन में पड़ जाता है। इस स्वभाव का वर्णन गीता में कई जगह हुआ है जैसे- प्रकृति के गुणों द्वारा ही सब क्रियाएं होती हैं[2] गुण ही गुणों बरत रहे हैं[3] इंद्रियाँ ही इंद्रियों के विषयों में बरत रही हैं[4] प्रकृति के द्वारा ही सब कर्म होते हैं।[5] तात्पर्य है कि समष्टि प्रकृति के द्वारा होने वाली क्रियाओं में मनुष्य को न तो अपनी मनमानी करनी चाहिए और न उनसे सुखी दुखी ही होना चाहिए। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रोग दो प्रकार का होता है- प्रारब्धजन्य और कुपथ्यजन्य। प्रारब्धजन्य रोग दवा से नहीं मिटता। जब तक प्रारब्ध का वेग होगा, तब तक वह रहेगा ही। कुपथ्यजन्य रोग पथ्य का सेवन करने से और दवा लेने से मिट जाता है। यहाँ (समष्टि प्रकृतिगत स्वभाव में) प्रारब्धजन्य रोग ही लिया गया है।
- ↑ (3।27)
- ↑ (3।28, 14।23)
- ↑ (5।8-9)
- ↑ (13।29)
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