विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
102. गीता में काव्यगत विशेषताएँ
(क)गीता का एक दार्शनिक ग्रंथ है, काव्य ग्रंथ नहीं। यह ग्रंथ केवल जीव के कल्याण के लिए ही है; अतः इसमें काव्य की बातों की आवश्यकता ही नहीं है। फिर भी इस ग्रंथों में स्वाभाविक ही काव्यगत विशेषताएं आ गयी हैं। काव्यगत विशेषताएं छः हैं-
अर्थात् काव्य रचना का प्रयोजन यश-प्राप्ति के लिए धन-प्राप्ति के लिए, व्यावहारिक ज्ञान के लिए, अनिष्ट-निवृत्ति के लिए, शीघ्र परमशांति की प्राप्ति के लिए और स्नेहपूर्वक उपदेश देने के लिये होता है। काव्य की रचना तथ पाठ-पाठन तो केवल सांसारिक यश की प्राप्ति के लिए होता है, पर गीता के अनुसार चलने से सांसारिक यश भी होता है- ‘पंडित लोग भी उसको पण्डित कहते हैं’- ‘तमाहुः पण्डितं बुधाः’[1] और भगवान् के दरबार में भी उसका आदर होता है- ‘ज्ञानी (प्रेमी) तो मेरा स्वरूप ही है’- ‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’[2]; ‘मेरा भक्त मुझे प्रिय है’- ‘यो मद्भक्तः स मे प्रियः’,[3] ‘स च मे प्रियः’,[4] ‘भक्तिमान्मे प्रियो नरः’[5] ‘वह सब कुछ जान जाता है’- ‘स सर्ववित्’[6] वह योगी हो जाता है, गुणों से अतीत हो जाता है, भगवद्भक्त हो जाता है। उसका उद्धार तो हो ही जाता है, उसकी बातों को मानने से दूसरों का भी उद्धार हो जाता है- ‘तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः’[7] इस तरह वह सबसे श्रेष्ठ, पवित्र हो जाता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज