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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
101. गीता का षड्लिंग
3. अपूर्वता- शरणागति के विषय में भगवान् ने अर्जुन के सामने अपने हृदय की गोपनीय अलौकिक बातें बतायी हैं। शरणागत होने पर भक्त को अपने उद्धार के लिए कुछ भी करना नहीं पड़ता; सब जिम्मेवारी भगवान् पर ही आ जाती है। भगवान् स्वयं भक्तों के योगक्षेम का वहन करते हैं- ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’[1] भगवान् कहते हैं कि मैं अपनी ओर से ही भक्तों को समता देता हूँ, जिससे वे मुझे प्राप्त हो जाते हैं- ‘ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते’[2] मैं स्वयं भक्तों के अज्ञानजन्य अंधकार का नाश कर देता हूँ- ‘नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता’[3]; शरणागत भक्तों के लिए मैं सुलभ हूँ- ‘तस्याहं सुलभः’[4]; मैं स्वयं भक्तों का मृत्यु-संसार-सागर से उद्धार करने वाला बन जाता हूँ- ‘तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्’[5]; आदि-आदि। 4. फल- शरणागति का फल भगवान् ने अपनी प्राप्ति बताया है; जैसे- मेरे को यज्ञों और तपों का भोक्ता और संपूर्ण लोकों का महान् ईश्वर मानकर भक्त परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है- ‘शान्ति- मृच्छति’[6] मेरे लिए ही कर्म करने वाला भक्त मेरे को प्राप्त हो जाता है- ‘स मामेति’[7]; मेरे लिए कर्म करता हुआ तू सिद्धि को अर्थात् मेरे को प्राप्त हो जायेगा- ‘सिद्धिमवाप्स्यसि’[8]; संपूर्ण बंधनों से मुक्त होकर तू मेरे को प्राप्त हो जाएगा- ‘विमुक्तो मामुपैष्यसि’[9]; पापयोनि आदि भी मेरी आश्रय लेकर परमगति को अर्थात् मेरे को प्राप्त हो जाते हैं- ‘तेऽपि यान्ति परां गतिम्’[10]; मेरी कृपा से भक्त शाश्वत अविनाशी पद को प्रप्त हो जाता है- ‘मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्’[11]; तू केवल मेरी शरण हो जा, मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा- ‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि’[12]; आदि-आदि। 5. अर्थवाद- गीता में भगवान् ने अपने शरणागत भक्तों की प्रशंसा की है; जैसे- संपूर्ण योगियों में मेरा भक्त सर्वश्रेष्ठ है- ‘स मे युक्ततमो मतः’[13]; मेरे में श्रद्धा रखने वाले और मेरे में श्रद्धा रखने वाले और मेरे परायण हुए भक्त मुझे अत्यंत प्रिय हैं- ‘तेऽतीव मे प्रियाः’[14]; जो मुझे पुरुषोत्तम जान लेता है, वह सर्ववित् हो जाता है- ‘स सर्ववित्’[15]; आदि-आदि। 6. उपपत्ति- शरणागत भक्त होने के विषय में भगवान् ने गीता में बहुत सी युक्तियाँ दी हैं; जैसे- मेरे में चित्तवाला तू मेरी कृपा से संपूर्ण विघ्न बाधाओं को तर जायेगा और यदि दू अहंकार के कारण मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायेगा- ‘न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि’[16]; ब्रह्मलोक तक जाने वालों को फिर लौटकर आना ही पड़ता है, पर मेरे को प्राप्त होने वाला भक्त फिर लौटकर नहीं आता- ‘मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते’[17]; देवताओं के भक्त देवताओं को प्राप्त होते हैं, पर मेरे भक्त मेरे को ही प्राप्त होते हैं- ‘देवान्देवयजो यन्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि’[18]; आदि-आदि। उपर्युक्त छः बातों का तात्पर्य है कि भगवान् के शरण होने पर लौकिक पारलौकिक सब तरह का लाभ है और शरण न होने पर लौकिक-पारलौकिक सब तरह का नुकसान है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (9।22)
- ↑ (10।10)
- ↑ (10।11)
- ↑ (8।14)
- ↑ (12।7)
- ↑ (5।29)
- ↑ (11।55)
- ↑ (12।10)
- ↑ (9।28)
- ↑ (9।32)
- ↑ (18।56)
- ↑ (18।66)
- ↑ (12।2)
- ↑ (12।20)
- ↑ (15।19)
- ↑ (18।58)
- ↑ (8।16)
- ↑ (7।23)
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